Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 277
________________ अनेकांत और स्यादवाद / 267 तत्त्व का सही निर्णय नहीं हो सकता। किंतु स्यात् पूर्वक अपने अभिप्राय को प्रकट करने से वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन होता है, क्योंकि 'स्यात्' पूर्वक बोला गया वचन अपने अर्थ को कहता हुआ भी अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता बल्कि उनकी मौन स्वीकृति बनाये रखता है। हां जिसे वह कहता है वह प्रधान हो जाता है और शेष गौण । क्योंकि जो विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है। और अविवक्षित गौण । इस प्रकार स्यादाद वचन में अनेकांत सव्यवस्थित रहता है स्याद्वाद का अर्थ शायदवाद नहीं स्याद्वाद के अर्थ को समझने में भारतीय दार्शनिकों ने भयानक भूल की है। शंकराचार्य का अनुकरण करते हुए आज भी डा. राधाकृष्णन जैसे कतिपय विद्वान् उसी प्रांत परंपरा का अनुसरण करते चले आ रहे हैं। वे 'स्यात्वाद' में 'स्यात्' पद का अर्थ फारसी के शायद से जोड़कर स्याद्वाद को शायदवाद, संदेहवाद, संभावनावाद अथवा कदाचित्वाद मानते हैं। खेद की बात तो यह है कि जैन ग्रंथों में इस पद का रहस्य समझाने वाले अनेक उल्लेखों के होने पर भी यह प्रांत परंपरा अभी तक चली आ रही है। _ 'स्याद्वाद' के 'स्यात्' पद का अभिप्रेत अर्थ शायद संभावना, संशय या कदाचित् आदि कदापि नहीं है, जिससे कि इसे शायदवाद, संशयवाद अथवा संभावनावाद कहा जा सके। जैन ग्रंथों में स्पष्टोल्लेख है कि 'स्यात्' शब्द अनेकांत का वाची शब्द है जो एक निश्चित दृष्टिकोण को प्रकट करता है। वस्तुतः मूल जैन ग्रंथों को नहीं देख पाने के कारण ही स्याद्वाद के विषय में इस प्रकार की धारणा बनी है। वर्षों से चली आ रही इस प्रकार की भ्रांत धारणा का उन्मूलन करते हए काशी विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के अध्यक्ष रह चुके स्व. प्रो. फणिभूषण अधिकारी ने बड़ी मार्मिक बात कही है। वे कहते हैं-"जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धांत को जितना गलत समझा गया है उतना अन्य किसी सिद्धांत को नहीं। यहां तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धांत के साथ अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी किंतु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूंगा। यद्यपि में इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूं। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रंथों को पढ़ने की परवाह नहीं की।" इसी प्रकार प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति महामहोपाध्याय स्व. डॉ. गंगानाथ झा लिखते हैं, “जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धांत का खंडन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि उस सिद्धांत में बहुत कुछ है, जिसे वेदांत के आचार्यों ने 1.(अ) वाक्येषु अनेकांत द्योति गाम्यं प्रति विशेषक स्यात निपातोऽई योगित्वात् तव केवलिनामपि । आ मी..103 (ब) सवर्थात्व निषेधकोऽनेकांतता द्योतकः कथंचिद स्यात शब्द निपातः । पंचा का. टी. (स) स्यादाद सवधैकांतत्यागात् किंवत चितिधि । आ. मी. 104 2. एकेनाकर्षयंती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । अन्तेन जायति बैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी।

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