________________
अनेकांत और स्यादवाद / 265
सबसे बुरी बात तो यह है कि 'एकांत' मिथ्या अमिनिवेश के कारण वस्तु के एक अंश को ही पूर्ण वस्तु मान बैठता है, और कहता है कि वस्तु इतनी ही है, ऐसी ही है इत्यादि । इसी से नाना प्रकार के झगड़े उत्पन्न होते हैं । एक मत का दूसरे मत से विरोध हो जाता है; लेकिन अनेकांत उस विरोध का परिहार करके उनका समन्वय करता है।
इस प्रकार अनेकांत दृष्टि वस्तु तत्त्व के विभिन्न पक्षों को तत्तत दृष्टि से स्वीकार कर समन्वय का श्रेष्ठ साधन बनता है। अनेकांत दृष्टि का अर्थ ही यही है कि प्रत्येक व्यक्ति की बात सहानुभूतिपूर्वक विचार कर परस्पर सौजन्य और सौहार्द स्थापित करे। अपने एकांत
और संकीर्ण विचारधारा के कारण ही आज कलह और कलुषता की स्थिति निर्मित होती जा रही है। किंतु संकीर्ण दायरों से मुक्त होकर जहां प्रत्येक व्यक्ति की बात का सहानुभूतिपूर्वक विचार कर उसका समुचित आदर किया जाता है वहां कलह और कलुषता की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती।
आज वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक या जीवन के किसी भी क्षेत्र में हमारे एकांतिक रुख के कारण ही विसंवाद हो रहे हैं। इस क्षेत्र में अनेकांत दृष्टि बहुत उपयोगी है, क्योंकि अनेकांत दृष्टि सिर्फ अपनी ही बात नहीं करती, अपितु सामने वाले की बात को भी धैर्यपूर्वक सुनती है। जहां सिर्फ अपनी ही बात का आग्रह होता है सत्य हमसे दूर हो जाता है। परंतु जहां अपनी बात के साथ-साथ दूसरों की बात की भी सहज स्वीकृति रहती है, सत्य का सुंदर फूल वहीं खिलता है। एकांत 'ही' का प्रतीक है तो अनेकांत 'भी' का । जहां 'ही' का आग्रह होता है वहां संघर्ष जन्म लेता है तथा जहां 'भी' की अनुगूंज होती है वहां समन्वय की सुरभि फैलती है। 'ही' में कलह है 'भी' में समन्वय, 'ही' में आग्रह है 'भी' में अपेक्षा । कहा गया है कि आग्रहशील व्यक्ति युक्तियों को खींचतान कर वहीं ले जाता है जहां पहले से ही उसकी बुद्धि जमी होती है। किंतु पक्षपात से रहित मध्यस्थ व्यक्ति अपनी बुद्धि को वहीं ले जाता है जहां उसे युक्तियां ले जाती हैं।
अनेकांत दर्शन यही सिखाता है कि युक्ति सिद्ध वस्तु स्वरूप को ही शुद्ध दृष्टि से स्वीकार करना चाहिए बद्धि का यही वास्तविक फल है। जो एकांत के प्रति आग्रहशील है
और दूसरों के सत्यांश को स्वीकारने के लिए तत्पर नहीं है, वह तत्त्वरूपी नवनीत को प्राप्त नहीं कर सकता। गोपी नवनीत तभी पाती है, जब वह मथानी की रस्सी के एक छोर को खींचती है और दूसरे छोर को ढीला छोड़ती है। अगर वह एक ही छोर खींचे और दूसरे को ढीला न छोड़े तो नवनीत नहीं निकल सकता। इसी प्रकार जब एक दृष्टिकोण को गौण करके दूसरे दृष्टिकोण को प्रधान रूप से प्रकाशित किया जाता है, तभी सत्य का नवनीत हाथ लगता है। अतएव एकांत के गंदले पोखर से निकलकर अनेकांत के शीतल सरोवर में अवगाहित होना ही श्रेयस्कर है।
1. आग्रहीबत् निनीपति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ।
पक्षपातरहितस्य तु युक्ति यत्र मतिरेति निवेशम् ॥ 2. एकेनाकर्षयन्ती श्लधयन्ती वस्तुतत्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्याननेत्रमिव गोपी ।।
पू. सि.3