Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 259
________________ मुनि आचार | 249 इससे स्पष्ट है कि दिगम्बर जैन मुनियों को यह सम्मान उनकी निर्विकारता और तपस्विता के प्रभाव से ही मिलता था । यदि यह असभ्यता या अशिष्टता का प्रतीक होता तो उन्हें उस काल में इतना सम्मान मिलना नामुमकिन था। यहां यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि शरीर का दिगम्बरत्व स्वयं साध्य नहीं साधन है। दिगम्बरत्व के बिना मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती है। इस बात को बताते हुए आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने जहां एक ओर कहा है कि “णग्गो हि मोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्ग गया सव्वे" अर्थात् दिगम्बर रूप ही मोक्षमार्ग है शेष सब उन्मार्ग हैं। वहीं यह भी लिखा है कि शारीरिक दिगम्बरत्व के साथ-साथ मानसिक दिगम्बरत्व भी अनिवार्य है। तन नंगा होने के साथ-साथ मन का नंगा होना भी आत्मसाधना के लिए अनिवार्य है। यदि शरीर की नग्नता साधन न होकर स्वयं साध्य होती तो जन्म से ही दिगम्बर रहने वाले पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों को कभी की ही मुक्ति मिल गयी होती। इस प्रकार इन अट्ठाईस मूल गुणों का सम्यक् रूप से पालन करने वाले साधक ही आदर्श जैन मुनि कहलाते हैं। इसके बिना शरीर मात्र से नग्न स्वच्छन्द आचरण करने वाले किसी अन्य नामधारी साधु को जैन मुनि नहीं माना जा सकता। उक्त 28 मूलगुण ऐसे व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक नियम हैं जो एक व्यक्ति को सच्चा साधु बना देते हैं। यह नियम ही दिगम्बर जैन परम्परा को बांधे हुए है। यदि उक्त वैज्ञानिक नियम प्रवाह जैन धर्म में न होता तो अन्य नग्न साधुओं की तरह दिगम्बर जैन साधुओं में भी बहुत-सी विकृतियां आ गयी होतीं तथा उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते। __उक्त 28 मूल गुणों के अतिरिक्त जैन मुनि पूर्वकथित दस धर्म,बारह अनुप्रेक्षा बाईस परिषह जय, तीन गुप्तियां तथा बारह प्रकार के तप आदि संवर और निर्जरा के अंगभूत साधनों को भी अपनाते हैं। साधु के भेद जैन मुनियों के अलग-अलग कर्तव्यों की अपेक्षा आचार्य, उपाध्याय और साधु रूप के तीन भेद किए गए हैं। तीनों अपने-अपने पद के अनुरूप मुनिवत का पालन करते हैं। आचार्य-आचार्य का पद जैन मुनियों में सर्वोच्च पद होता है। वे मुनि धर्म संबंधी आचरण का स्वयं पालन करते हैं तथा अन्यों से भी वैसा आचरण कराते हैं। वे धर्मोपदेश देकर मुमुक्षुओं का संग्रह करते हैं तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कराकर उनका अनुग्रह भी करते हैं । आचार्य जैन मुनियों के गुरु कहलाते हैं । उपाध्याय : उपाध्याय साधुओं के नियम पालते हुए संघ में पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन का कार्य करवाते हैं। साधु : जो मात्र उपर्युक्त 28 मूल गुणों का पालन करते हुए ज्ञान-ध्यान में लीन रहते 1. सू. पा 23 2. माग67

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