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मुनि आचार / 247
केशलोंच : अपने हाथों से अपने बालों को उखाड़ना केशलोंच कहलाता है। वे दो माह से चार माह के भीतर अपने हाथों से सिर और दाढ़ी-मूंछ के बाल उखाड़कर केशलोंच करते हैं । केशलोंच करने का उद्देश्य शरीर के प्रति निर्ममत्व एवं स्वाधीनता की भावना को बल पहुंचाना है। बाल (केश) बढ़ाकर रखने पर उनमें जुएं, लीख आदि जन्तु हो जाते हैं। नाई आदि से कटवाने पर दूसरों से याचना करने का प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिए जैन मुनि अपने ही हाथों से अपने बालों को उखाड़कर अलग कर देते हैं। इस क्रिया से शरीर से निर्ममत्व तो होता ही है, खरे-खोटे साधु की पहचान भी हो जाती है। जो लोग वैराग्य से प्रेरित न होकर अन्य किसी उद्देश्य से मुनिधर्म को अंगीकार करते हैं, वे केशलोंच जैसे कठिन कर्म से घबराकर दूर हो जाते है । ऐसा करने से पाखंडियों से साधु संघ का बचाव हो जाता है ।
नग्नता अशिष्टता नहीं
जैन मुनि किसी प्रकार का वस्त्र / आवरण अपने शरीर पर नहीं डालते । वे दिशाओं को ही अपना वस्त्र बना नग्न दिगम्बर रूप धारण करते हैं। कुछ लोग उनकी इस नग्नता को अशिष्टता एवं असभ्यता मानते हैं। लेकिन नग्नता अशिष्टता नहीं है। यह तो मनुष्य की आदर्श स्थिति है। मनुष्य का प्राकृतिक रूप ही दिगम्बर है । वस्त्र तो विकारों को ढांकने का साधन है। जैसे जन्म लेते समय बालक नग्न रहता है उस क्षण उसके अन्तस में किसी प्रकार का विकार नहीं रहता तथा उसे देखने वालों के मन में भी कोई ग्लानि या घृणा का भाव नहीं आता । जैसे-जैसे उसके अन्दर विकार आने लगते हैं, वह वस्त्र धारण करने लगता है। जैन मुनि अपने वस्त्रों का परित्याग कर अपनी प्राकृतिक अवस्था की ओर लौट आते हैं। उनकी स्थिति यथाजात बालक की तरह निर्विकार रहती है। अतः इसमें अशिष्टता या असभ्यता जैसी कोई बात ही नहीं है। वस्तुतः किसी बाह्य रूप या क्रिया की शिष्टता एवं अशिष्टता का निर्णय भीतरी प्रयोजन की निर्मलता या अपवित्रता पर निर्भर करता है। आंतरिक प्रयोजन के मलिन होने पर ही उसकी प्रेरणा से किया गया कार्य अशिष्टता के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार दिगम्बरत्व तो विकारों पर विजय पाने का वैज्ञानिक साधन है । दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा में गांधी जी के निम्न वाक्य दृष्टव्य हैं, वे लिखते हैं- 1
“वास्तव में देखा जाए तो कुदरत ने चर्म के रूप में मनुष्य को योग्य पोशाक पहनाई है । नग्न शरीर कुरूप दिखाई पड़ता है, ऐसा मानना हमारा भ्रम मात्र है । उत्तम से उत्तम सौन्दर्य के चित्र तो नग्नावस्था में ही दिखाई पड़ते हैं। पोषाक से साधारण अंगों को ढांककर मानो हम कुदरत के दोषों को दिखा रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे पास ज्यादा पैसे होते जाते हैं, वैसे-वैसे ही हम सजावट बढ़ाते जाते हैं। कोई किसी भांति रूपवान बनना चाहता है, और बन-ठनकर कांच में मुंह देखकर प्रसन्न होते हैं कि 'वाह मैं कैसा खूबसूरत हूं' । बहुत दिनों के ऐसे अभ्यास के कारण हमारी दृष्टि खराब न हो गई हो तो हम तुरन्त ही देख सकेंगे कि मनुष्य का उत्तम से उत्तम रूप उसकी नग्नावस्था में ही है और उसी में उसका आरोग्य है।”
विदेशी विद्वान् श्रीमती स्टीवेन्सन ने अपनी पुस्तक 'The Heart of Jainism' के पृष्ठ
1. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि पर उद्धृत, पृ. 10