Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 266
________________ 256 / जैन धर्म और दर्शन नहीं है। अपितु उसका एक निश्चित क्रम है। उस क्रम का ध्यान रखकर ही सल्लेखना करनी/करानी चाहिए। इसका ध्यान रखे बिना एक साथ ही सब प्रकार के खान-पान का त्याग करा देने से साधक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। कभी-कभी तो उसे अपने लक्ष्य से च्युत भी हो जाना पड़ता है। अतः साधक को किसी भी प्रकार की आकुलता न हो और वह क्रमशः अपनी काया और कषायों को कृश करता हुआ, देहोत्सर्ग की दिशा में आगे बढ़े, इसका ध्यान रखकर ही सल्लेखना की विधि बनायी गयी है। सल्लेखना की विधि में सर्वप्रथम, कषायों को कृश करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि साधक को सर्वप्रथम अपने कुटुम्बियों, परिजनों एवं मित्रों से स्नेह, अपने शत्रुओं से बैर तथा सब प्रकार के बाह्य पदार्थों से ममत्व का शुद्ध मन से त्यागकर, मिष्ट वचनों के साथ अपने स्वजनों और परिजनों से क्षमा याचना करनी चाहिए तथा अपनी ओर से भी उन्हें क्षमा करनी चाहिए। उसके बाद किसी योग्य गुरु (निर्यापकाचार्य) के पास जाकर कृत कारितानुमोदना से किए गए सब प्रकार के पापों की छलरहित आलोचना कर, मरणपर्यन्त के लिए महाव्रतों को धारण करना चाहिए । (यदि गृहस्थ हो तो) उसके साथ ही उसे सब प्रकार के शोक, भय, संताप, खेद, विषाद, कालुष्य, अरति आदि अशुभ भावों को त्याग कर अपने बल, वीर्य, साहस और उत्साह को बढ़ाते हुए गुरुओं के द्वारा सुनाई जाने वाली अमृत-वाणी से अपने मन को प्रसन्न रखना चाहिए। कषाय सल्लेखना का यह संक्षिप्त रूप है। इसका विशेष कथन ग्रंथों से जानना चाहिए। इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कषायों को कृश करने के साथ वह अपनी काया को कृश करने के हेतु सर्वप्रथम स्थूल/ठोस आहार-दाल-भात, रोटी जैसे आहार का त्याग करता है तथा दुग्ध, छाछ आदि जैसे पेय पदार्थों में रहने का अभ्यास बढाता है। धीरे-धीरे जब दूध, छाछ आदि पर रहने का अभ्यास हो जाता है. तब वह उनका भी त्याग कर मात्र गर्म जल ग्रहण करता है। इस प्रकार चित्त की स्थिरतापूर्वक अपने उक्त अभ्यास और शक्ति को बढ़ाकर, धीरजपूर्वक, अंत में उस जल का भी त्याग कर देता है और अपने व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए 'पंच-नमस्कार' मंत्र का स्मरण करता हुआ शांतिपूर्वक, इस देह का त्यागकर परलोक को प्रयाण करता है।' सल्लेखना के अतिचार सल्लेखना धारी साधक को अपनी सेवा, सुश्रुषा होती देखकर अथवा अपनी इस साधना से बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के लोभ में और अधिक जीने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। “मैंने आहारादि का त्याग तो कर दिया है, किंतु मैं अधिक समय तक रहूं, तो मुझे भूख-प्यास आदि की वेदना भी हो सकती है इसलिए अब और अधिक न जीकर शीघ्र ही मर जाऊं तो अच्छा है।" इस प्रकार मरण की आकांक्षा भी नहीं करनी चाहिए। “मैं सल्लेखना तो धारण कर ली है, पर ऐसा न हो कि क्षुधादिक की वेदना बढ़ जाए और मैं उसे सह न पाऊं।" इस प्रकार का भय भी मन से निकाल देना चाहिए । “अब तो मुझे इस संसार से विदा होना ही 1. रकबा 122-130

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