Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 272
________________ 262/ जैन धर्म और दर्शन परिचय नहीं पाया जा सकता । हम अपने एकांगी/एक कोणिक/एक पक्षीय दृष्टि से वस्तु के एकांश को ही जान सकते हैं । वस्तु के विराट स्वरूप को बहुमुखीन दृष्टि से ही समझा जा सकता है, तभी उसका समग्र बोध होगा। इस प्रकार अनेकांत का अर्थ हुआ वस्तु का समग्र बोध कराने वाली दृष्टि । विरोध में अविरोध कैसे? एक ही वस्तु परस्पर विरोधी धर्म वाली कैसे हो सकती है? यह बात सामान्य व्यक्ति के मन में उठ सकती है। किंतु हम वस्तु तत्त्व पर गहराई से विचार करें तो जगत् के चराचर सभी पदार्थ परस्पर विरोधी ही दिखाई पड़ेंगे। यह सब अनेकांतात्मक दृष्टि पर ही संभव है, क्योंकि वस्तु को हम जैसा देखना चाहें, वस्तु हमें वैसी ही दिखती है। पानी से भरे आधे गिलास को हम यह भी कह सकते हैं कि 'गिलास आधा भरा है तथा यह भी कहा जा सकता है कि 'गिलास आधा खाली है'। यह सब देखने वाले की दृष्टि पर निर्भर है,क्योंकि गिलास खाली भी है और उसी समय भरा भी है। यदि हम एकांत आग्रहपूर्वक 'गिलास आधा भरा ही है', 'गिलास आधा खाली ही है', ऐसा कहते हैं तो यह गिलास के साथ अन्याय होगा। यथार्थतः वह खाली और भरा दोनों है। इसी प्रकार जगत् के प्रत्येक पदार्थ में अनेकांतात्मक दिखते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। एक ही अणु में जहां आकर्षण शक्ति विद्यामन है, वहां विकर्षण शक्ति भी अपना समान अस्तित्व रखती है। उसमें जहां संहारकारी शक्ति विद्यमान है वहीं उसमें स्थित-निर्माणकारी शक्ति भी अपना परिचय दे रही है। जल हमारे जीवन का प्रमुख आधार है । उसके पीने से हमारी प्राण रक्षा होती है, वहीं जल तैरते समय गुटका लग जाने से जान लेवा सिद्ध होता है। अग्नि हमारे लिए बहुत उपकारक है, यह सभी जानते हैं। वह हमारे भोजन आदि के निर्माण में सहायक होती है; किंतु वही अग्नि जब किसी मकान में लग जाती है. तब वह कितनी संहारक होती है.कहने की जरूरत नहीं। इस प्रकार एक ही अग्नि में पाचकत्व और दाहकत्व जैसे दो विरोधी धर्म हमें दिखते ही हैं। जिस भोजन से हमारी क्षुधा दूर होती है, जो भोजन भूखे का प्राण रक्षक होता है; वही भोजन किसी अजीर्णग्रस्त रोगो के लिए विष साबित होता है। विष जो हमारे प्राणों का घातक है वही वैद्यों द्वारा कभी-कभी औषधि के रूप में दिया जाता है। इस प्रकार एक ही वस्तु विष और अमृत दोनों है। एकान्तवादियों को यह बात समझ में नहीं आ सकती। वे कहते हैं कि “इस प्रकार परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को स्वीकार करने पर विरोध उपस्थित होता है। लेकिन विरोध देखने वाले की दृष्टि में हो सकता है, विरोध वस्तु में नहीं है। वस्तु तो अनेक विरोधी धर्मों का अविरोधी आश्रय स्थल है। विरोध तो तब होता जब अग्नि को जिस दृष्टि से पाचक कहा जाए उसी दृष्टि से दाहक कहते, किंतु जब परस्पर विरोधी धर्मों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से सापेक्ष कथन किया जाता है तब विरोध की कोई संभावना नहीं रहती। सब कुछ सापेक्ष ही है। इसे इस उदाहरण से समझें

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