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कर्म मुक्ति के उपाय –(संवर-निर्जरा) / 155
'अलाभ परिषह-जय' है।
16. रोग : यदि शरीर किसी रोग, व्याधि व पीड़ा से घिर जाए, तो उसे शांतिपूर्वक सहना 'रोग परिषह-जय' है।
17. तृण-स्पर्श : चलते, उठते, बैठते तथा सोते समय जो कुछ तृण, ककड़, काटा, आदि चुभने की पीडा हो, उसे साम्य भाव से सहन करना 'तृण-स्पर्श परिषह-जय' है ।
18. मल. शरीर में पसीना आदि से मल लग जाने पर भी उस ओर दष्टि न देकर उन्हें हटाने की इच्छा न करना 'मल परिषह-जय' है।
__19. सत्कार-पुरस्कार : सम्मान एव अपमान मे समभाव रखना और आदर-सत्कार न होने पर खेद-खिन्न न होना 'सत्कार-पुरस्कार परिषह-जय' है।
20. प्रज्ञा : अपने पाण्डित्य का अहकार न होना 'प्रज्ञा परिषह-जय' है।
21. अज्ञान : ज्ञान न होने पर लोगो के तिरस्कार युक्त वचनो को सुनकर भी अपने अंदर हीन-भावना न लाना 'अज्ञान परिषह-जय' है।।
22. अदर्शन : श्रद्धान मे च्युत होने के कारण उपस्थित होने पर भी मुनि मार्ग से च्युत न होना 'अदर्शन परिषह-जय' है।
___ यह बाईस परिषह जैन मुनियो की विशेष साधनाए है। इनके द्वारा वह अपने को पूर्ण इन्द्रिय-विजयी और योगी बनाकर मवर का पात्र बनाते है। परिषहो को जीतने मे चरित्र मे दढ निष्ठा होती है और कर्मो का आस्रव रुककर सवर होता है।
चारित्र मवर का सातवा साधन चारित्र है। जिसके द्वारा हित की प्राप्ति और हित का निवारण होता है । उसे चारित्र कहते है ।' एक परिभाषा के अनुसार, आत्मिक शुद्ध दशा मे स्थिर होने का प्रयत्न करना चारित्र है । विशुद्धि को तरतमता की अपेक्षा, चारित्र पाच प्रकार का कहा गया है-सामायिक छेदोपस्थापना. परिहार-विशुद्धि,सूक्ष्म-साम्पराय और यथाख्यात ।'
1. सामायिक : साम्यभाव में स्थित रहने के लिए समस्त पाप-प्रवृत्तियो का त्याग करना 'सामायिक' चारित्र है।
2. छेदोपस्थापना . गृहीत चारित्र मे दोष लगने पर, उनका परिहार कर, मूल रूप में स्थापित होना 'छेदोपस्थापना' चारित्र है।'
____3. परिहार-विशुद्धि . विशिष्ट तपश्चर्या मे चारित्र को अधिक विशुद्ध करना 'परिहार-विशद्धि' कहलाती है। इस चारित्र के प्रकट होने पर इतना हल्कापन आ जाता है कि चलने-फिरने, उठने-बैठने रूपी मभी क्रियाओं को करने के बाद भी किसी जीव का घात नहीं हो पाता। 'परिहार' का अर्थ होता है 'हिसाटिक पापों से निवृत्ति'। इस विशुद्धि के
1 भग आ विजयो 8/41 2 प्रसा जय वृत्ति 8 3 तत्वार्थ सूत्र 9/18 4 त वा 929/11 5 सर्वा सि.9/186 6 सर्वा सि 9/18