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206 / जैन धर्म और दर्शन
वर्तमान के समस्त पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाने के कारण इन्हें सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भी कहते हैं। ये जन्म और मरण रूप संसार के परिभ्रमण से मुक्त हो जाते हैं। अन्य दर्शनों में इन्हें जीवन मुक्त कहा जाता है। इसे ही भाव-मुक्ति भी कहते हैं। ये परम वीतरागी होते
योग सहित होने के कारण ये 'सयोगी' तथा केवल ज्ञान होने के कारण केवली' कहलाते हैं। कर्मों को जीतकर ही यह अवस्था प्राप्त होती है, इसलिए इस गुणस्थान को 'संयोग केवली जिन' कहते हैं।
जीवन-मुक्ति और देह-मुक्ति में अन्तर जीवन-मुक्त होते ही वे मुक्ति का अनुभव करने लगते हैं, वे पूर्ण स्वतंत्र हो जाते हैं। इसे ऐसे समझें जैसे कोई अपराधी वर्षों तक कारागृह में कैद रहने के बाद मुक्त किया जाता है, तब वह अपने बैरक से निकलते ही स्वतंत्रता का अनुभव करने लगता है, क्योंकि अब वह कैदी नहीं रहा। उसकी बेड़ियां अलग कर दी गयी हैं, जेल की ड्रेस (परिधान) भी छूट गयी है वह सज़ा से मुक्त हो चुका है। यद्यपि वह कारागृह में ही है,फिर भी जेलर के अनुशासन से वह मुक्त हो चुका है, अब वह जेल से निकलने को है, पर चौकीदार अभी चाबी लेकर द्वार पर नहीं पहुंचा है। जब तक दरवाजा नहीं खुलता तब तक वह कारागृह से बाहर नहीं निकल पाता। फिर भी रहता तो स्वतंत्र ही है। द्वार खुलते ही वह बाहर आ जाता है। जीवन-मुक्ति देह के कारागृह से मुक्ति की घोषणा हैं। आयु-कर्म के द्वार खोलने की प्रतीक्षा को घड़ी है। जब तक आयु-कर्म चाबी लेकर नहीं आ जाता, तब तक कारागृह से बाहर नहीं निकला जा सकता। जीवन-मुक्ति और देह-मुक्ति में यही अंतर है।
14. अयोग केवली : आत्मिक विकास का यह अंतिम चरण है। जीवन-भर की साधना का यह चरम पड़ाव है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती 'सयोग-केवली-जिन' अपने जीवन के अंतिम क्षणों में देह से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध-ध्यान के बल से योगों का पूर्णतया निग्रह कर लेते हैं। तब वह आत्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुंच जाते हैं। योगातीत हो जाने के कारण इस गुण-स्थानवर्ती साधक को 'अयोग-केवली' कहते हैं। इस अवस्था में साधक आत्मा अपने उत्कृष्टतम शुक्ल ध्यान के द्वारा पर्वत की तरह निष्पकम्प अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। अंत में देह-त्यागपूर्वक सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। कमों का आत्यन्तिक क्षय इसी अवस्था में होता है । कर्मों का क्षय होते ही वे संसार के बंधन से पूर्णतया मुक्त हो जाते हैं। यहां से जीवन पूर्ण विकसित और कृत्य-कृत्य हो जाता है।
इस प्रकार आध्यात्मिक विकास के इस क्रम से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन में अनादि सिद्ध परमात्मा को नहीं स्वीकारा गया है। प्रत्येक जीव अपने आत्म विकास की इन सीढ़ियों पर आरूढ़ होकर परमात्म दशा को प्राप्त कर सकता है।
1. गो. सा जी. का 64 2. छ.पु. 1/192