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जैनाचार
आचार और विचार व्यक्तित्व के समान शक्ति वाले दो पक्ष हैं। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। विचारों के आधार पर ही हमारा आचरण फलता है, तथा आचरण से ही विचारो मे स्थिरता
आती है। इन दोनों पक्षों के संतुलित विकास होने पर ही व्यक्तित्व का विशुद्ध विकास होता है। इस प्रकार के कह होने पर ही व्यक्तित्व का विशुद्ध विकास को हम ज्ञान और क्रिया का विकास कह सकते हैं,जो दुःख मुक्ति के लिए अनिवार्य है।
आचार और विचार की इसी अन्योन्याश्रितता को दृष्टिगत रखते हुए, भारतीय तत्त्व चितकों ने धर्म और दर्शन का साथ-साथ प्रतिपादन किया है। उन्होंने एक ओर जहा नन्वज्ञान की प्ररूपणा कर दर्शन की प्रस्थापना की है तो वही दूसरी ओर आचार शास्त्रो का निरूपण कर साधना का मार्ग प्रशस्त किया है। भारतीय परम्परा मे आचार को धर्म तथा विचार को दर्शन कहा गया है। जब मानव विचारो के गर्भ में प्रवेश करता है तब दर्शन जन्म लेता है तथा जब विचारों को आचरण मे डालता है, तब धर्म प्रकट होता है। धर्म तथा दर्शन परम्पर पूरक है । एक के बिना दूसरा एकागी और अपूर्ण है । दर्शनरहिन आचरण अधा है। जिस आचरण में विवेक की जगमगाती ज्योति नहीं है वह मही और गलत की अध गलियों मे भटकता रहेगा। आचार का मार्गदर्शक विचार है। विचार ही आचार को मन्मार्ग पर चलाना है। दूसरी ओर आचार-रहित विवार पगु है । मुक्ति के माधना पथ पर आचार रहित माधक आगे नहीं बढ़ सकता। दीपक के बारे में विद्वत् चर्चा में प्रकाश प्रगट नही होता, प्रकाश तो दीप जलाने की क्रिया (आचरण) मे ही प्रगट होता है। इस तरह आचाररहित विचार और विचाररहित आचार दोनो ही निरर्थक है। दोनो का समन्वय ही मच्ची धर्म साधना है जिसके द्वारा मुक्ति की मंजिल प्राप्त की जा सकती है।
जैन परम्परा में आचार और विचार को समान स्थान दिया गया है। अहिमा मूलक आचार और अनेकांत मूलक विचार का प्रतिपादन जैन परम्परा की प्रमुख विशेषता है।
अहिंसा अहिसा जैनाचार का प्राण तत्त्व है। इसे ही परमब्रह्म और परमधर्म कहा गया है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन और आचरण जैन परम्परा में मिलता है उतना किसी अन्य में नहीं। अहिसा का मूलाधार आत्म साम्य है। प्रत्येक आत्मा चाहे वह सूक्ष्म हो या स्थूल, स्थावर हो