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222 / जैन धर्म और दर्शन
देव, गुरु और धर्म के प्रति समर्पित पाक्षिक श्रावक गृहस्थ की उक्त सभी विशेषताओं का पालन करता है। उसके आठ मूल गुण होते हैं। वह हिसादिक पाचों पापों का स्थूल रूप से त्याग करता है तथा मद्य, मास और मधु का भी सेवन नही करता है। इस प्रकार पाच अणुव्रत एव मद्य, मास, मधु का त्याग पाक्षिक श्रावक के ये आठ मूल गुण होते हैं ।
अहिंसाणुव्रत अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए राग-द्वेषपूर्वक किसी जीव को मन, वचन, काय से पीडा पहुचाना हिसा है। इस हिसा के स्थूल त्याग को अहिसाणुव्रत कहते हैं। जैन धर्म मे उस
और स्थावर के भेद से दो प्रकार के जीव बतलाये गए हैं। “वनस्पति आदि स्थावरों एव वसों की पूर्व कथित चतुर्विध हिमा में से आरभी, उद्योगी और विरोधी हिसा तो गृहस्थ के लिए अपरिहार्य हैं।” अत वह सिर्फ सकल्पी हिसा का त्याग करता है, अर्थात् वह सकल्पपूर्वक मन, वचन और काय से किसी भी त्रस प्राणी का घात अपने मनोरजन एव स्वार्थपूर्ति के लिए नही करता है तथा शेष तीन प्रकार की हिसा को भी अपने विवेकपूर्वक कम करता है।
अतिचार सावधानीपूर्वक व्रतों का पालन करते रहने पर भी अज्ञान अथवा प्रमादवश कुछ ऐसी भूलें हो जाती है जो व्रतो को मलिन कर देती हैं। इस प्रकार की भूलो को अतिचार कहते हैं। अतिचार से आशय उन प्रवृत्तियो से है, जो व्रतो को दूषित करती है। इस प्रकार के अतिचारों से बचना चाहिए। ___अहिसाणुव्रत के पाच अतिचार हैं-छेदन, बधन, पीडन, अतिभारारोपण, आहार वारणा या अन्नपान निरोध।'
___छेदन दुर्भावनापूर्वक पालतू पशु-पक्षियों के नाक-कान आदि छेदना, नकेल लगाना, नाथ देना आदि 'छेदन' है।
बधन पालतू पशु-पक्षियों को इस तरह बाधना कि वे हिल-डुल भी न सकें तथा मकान मे आगादि लगने पर प्राण रक्षा के लिए भाग भी न सकें 'बधन' है।
पीडन डडा, बेत, चाबुक आदि से घात करना, अपने पालतू पशुओं तथा परिजनों को पीडा पहुचाना तथा कठोर एव अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर किसी को पीडा पहुचाना 'पीडन' नाम का अतिचार है।
अतिभारारोपण क्षमता से अधिक बोझ लादना अतिभारारोपण है। दुर्भावनावश अपने आश्रित कर्मियों एव पशुओं पर उनकी क्षमता से अधिक भार लादना, उनसे अधिक काम लेना आदि सब 'अति भारारोपण' की पर्याय है।
-र. क.मा.66
1 मद्य मास मधु त्यागे सहाणुवतपचकम् ।
अष्टी मूलगुणानाहुँ पहिणा श्रमणोत्तमा ।। 2 रकबा 53 3 रकबा 54