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जैनाचार / 217
जाती है, वैसे ही सत्यादि अहिंसा की रक्षा के लिए लगाये जाने वाले बाढ़ की तरह है। आत्मविकास में बाधक कर्मों को रोकने तथा उन्हें नष्ट करने के लिए अहिंसा एवं तदाधारित सत्यादि व्रतों का परिपालन अनिवार्य है। इसमें व्यक्ति एवं समाज दोनों का हित निहित है। व्यैक्तिक उत्थान एवं सामाजिक उत्कर्ष के लिये असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण तथा संयम का परिपालन अनिवार्य है। इनके अभाव में अहिंसा का विकास नहीं हो सकता। परिणामत: आत्मविकास में बहुत बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती है। इन सबके साथ अपरिग्रह का व्रत भी आवश्यक है। परिग्रह आत्मविकास का प्रबल शत्रु है। जहां परिग्रह होता है वहां आत्मविकास के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। इतना ही नहीं परिग्रह आत्मा के अधःपतन का बहुत बड़ा कारण बनता है। परिग्रह का अर्थ ही है पाप का संग्रह । यह आसक्ति से बढ़ता है तथा आसक्ति को बढ़ाता है। इसी का नाम मूर्छा है। ज्यों-ज्यों परिग्रह अधिक बढ़ता है त्यों-त्यों आसक्ति बढ़ती जाती है। जितनी अधिक आसक्ति बढ़ती है उतनी ही अधिक हिंसा बढती है। यही हिंसा मानव समाज में वैषम्य उत्पन्न करती है। इसी से आत्मपतन भी होता है। अपरिग्रह वृत्ति अहिंसामूलक सम्यक् आचार के परिपालन के लिए अनिवार्य है।
मुख्य रूप से समाज में बैर-विरोध बढ़ाने वाली वृत्तियों के नियंत्रण के लिए ही उक्त व्रतों की व्यवस्था दी गयी है। हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, कुशील मत करो तथा परिग्रह का संचय मत करो। इन निषेधात्मक नियमों से ही मनुष्य के आचरण का परिष्कार सरलतम रीति से किया जा सकता है। हिंसादिक पांच पाप सामाजिक पाप हैं। मनुष्य की इन्हीं प्रवृत्तियों से आज मानव समाज प्रदूषित हो रहा है जो व्यक्ति जितने अंशों में इनका परित्याग करता है वह उतना ही सभ्य और समाज-हितैषी माना जाता है। जितने अधिक व्यक्ति इसका पालन करेंगे, समाज उतना ही अधिक शुद्ध, सुखी और प्रगतिशील बनेगा।
जैन शास्त्रों में उक्त व्रतों पर बहुत जोर दिया गया है। जैन साधना का मूलाधार उक्त वत ही है। इस पर ही जैन साधना का भवन टिका है। इसके अभाव में साधना की ही नहीं हो सकती।
उक्त पांच व्रतों के परिपालनार्थ व्रतों के दो स्तर स्थापित किए गए हैं। प्रथम है साधु मार्ग और द्वितीय श्रावक मार्ग या गृहस्थ मार्ग । इन्हें क्रमशः साधु धर्म और श्रावक धर्म भी कहते हैं। साधु मार्ग निवृत्तिमूलक है । हिंसा, झूठ, चोरी कुशील और परिग्रहरूपी पांचों पाप के परिपूर्ण त्याग से यह प्रारंभ होता है। साधना का राजमार्ग यही है,क्योंकि उक्त पांचों पाप ही हमारे आत्मविकास के सबसे बड़े अवरोधक हैं। इनसे विमुख हुए बिना आध्यात्मिक आनन्द आ ही नहीं सकता। श्रावक मार्ग या गृहस्थ मार्ग का निर्वाह उक्त पापों के आंशिक त्याग से होता है। इसका पालन समाज में रहने वाले मनुष्य अपनी क्षमता के अनुरूप करते हैं। गृहस्थ मार्ग त्याग और भोग के बीच संतुलित जीवन जीने की पद्धति है। साधु जीवन में जहां आध्यात्मिक जीवन का चरमोत्कर्ष है, तो श्रावक जीवन भी नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों के क्रमिक विकास के साथ-साथ मानवीय गुणों का संचार करता है। साधु धर्म जहां व्यक्ति को आत्मकेंद्रित बनाकर पूर्ण निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है, तो श्रावक धर्म