Book Title: Jain Dharm aur Darshan
Author(s): Pramansagar
Publisher: Shiksha Bharti

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Page 164
________________ 154 / जैन धर्म और दर्शन हो सकती है, किंतु उनमें बाईस का उल्लेख मुख्य रूप से किया गया है, और सन्मार्ग से च्युत न होने के लिए तत्संबंधी क्लेशों पर विजय पाने का उपदेश दिया गया है। वे हैं क्रमश:-क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डॉस-मच्छर, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन। 1-2. क्षुधा-तृषा : जैन साधु अपने पास कुछ भी परिग्रह नहीं रखते, न ही अपना भोजन अपने हाथ से बनाते हैं । भिक्षावृत्ति से ही भोजन ग्रहण करते हैं। वह भी दिन में एक ही बार तथा समय-समय पर उपवास आदि तप भी धारण करते हैं। ऐसी स्थिति में भूख और प्यास लगना स्वाभाविक है । फिर भी, कितनी ही तीव्र भूख या प्यास लगने पर स्वीकृत मर्यादा (विधि) विरुद्ध आहार मिलने पर उसे ग्रहण नहीं करना, क्षुधा और प्यास रूपी अग्नि को धैर्य रूपी जल से शांत करना 'क्षधा-तषा परिषह-जय' है। 3-4. शीत-उष्ण : कड़कड़ाती ठण्ड हो या जेठ की तपतपाती धूप.दोनों परिस्थितियों में वस्त्रादिकों को स्वीकार न कर,समता-भावपूर्वक सहन करना 'शीत-उष्ण परिषह-जय' है। 5. डॉस-मच्छर : मक्खी, पिस्सू आदि जंतुओं कृत बाधाओं को समतापूर्वक सहन करना,उनसे विचलित होकर प्रतिकार की इच्छा न करना 'डॉस-मच्छर परिषह-जय' है। 6. नाग्न्य : माता के गर्भ से उत्पन्न बालक की तरह नग्न रूप धारण करना 'नाग्न्य' परिषह-जय है। दिगम्बरत्व को धारण करनेवाले साधु के मन में किसी भी प्रकार का विकार न आना तथा लज्जा आदि के वश,उसे छिपाने का भाव न करना,'नाग्न्य परिषह-जय' है। 7. अरति : 'अरति' का अर्थ 'संयम के प्रति अनुत्साह है। अनेक विपरीत कारणों के होने पर भी संयम के प्रति अत्यंत अनुराग बना रहना ‘अरति परिषह-जय' है। 8. स्त्री : नव-युवतियों के हाव-भाव, विलासादि द्वारा बाधा पहुंचाए जाने पर भी मन ने देना.उनके रूप को देखने अथवा उनके आलिंगन की भावना न होना 'स्त्री परिषह-जय' है। 9. चर्या : नंगे पैरों से सतत विहार करते रहने पर,मार्ग में पड़ने वाले कंकर-पत्थरों से पैर छिल जाने पर भी खेद खिन्न न होना 'चर्या परिषह-जय' है। 10. निषद्या : जिस आसन में बैठे हैं उस आसन से विचलित न होना। 11. शय्या : स्वाध्याय, ध्यान आदि के श्रमजन्य थकावट दूर करने के लिए,रात्रि में ऊंची-नीची, कठोर भूमि अथवा लकड़ी के पाटे आदि पर एक करवट से शयन करना 'शय्या परिषह-जय' है। 12. आकोश : मार्ग में चलते हए साध को अन्य अज्ञानियों द्वारा गाली-गलौच अपमानित आदि करने पर भी शांत रहना,उन पर क्रोध न करना आक्रोश परिषह-जय' है। ____13. बंध : जैसे चंदन को जलाने पर भी वह सुगंध देता है; वैसे ही अपने साथ मार-पीट करने वालों पर भी क्रोध न करना, अपितु, उनका हित सोचना 'वध परिषह-जय' है। 14. याचना : आहारादि के न मिलने पर भले ही प्राण चले जाएं, लेकिन किसी से याचना करना तो दूर,मन में दीनता भी न आना याचना परिषह-जय' है। 15. अलाभ : आहारादि का लाभ न होने पर भी, उसमें लाभ की तरह संतुष्ट रहना

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