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190 / जैन धर्म और दर्शन
पालन करने पर सम्यक् दर्शन रहता है, अन्यथा नही। जिस प्रकार किसी विषहारी मत्र में यदि एक अक्षर भी कम हो जाता है तो वह मत्र प्रभावहीन हो जाता है । उसी प्रकार एक अग से भी हीन सम्यक्त्व हमारे ससार की सतित को नहीं मिटा पाता । आठों अग पूर्ण होने पर ही सम्यक्त्व अपना सही कार्य करता है।
सम्यक्त्व के इन आठ अगों की तुलना हम अपने शरीर के आठ अगों से कर सकते है। शरीर के भी आठ अग होते हैं। दो पैर, दो हाथ, नितब,पीठ, वक्षस्थल और मस्तिष्क । शरीर के इन अगों के प्रति यदि हम थोडी बारीकी से विचार करें तो हमें इनमें भी सम्यक्त्व की झलक दिखाई देती है। समझने के लिए जब हम चलते हैं तो चलते वक्त एक बार रास्ता देख लेने के बाद बिना किसी सदेह के अपना दाया पैर बढा लेते हैं। दाया पैर बढ़ते ही बिना किसी अपेक्षा के बाया पैर स्वय बढ जाता है, यही तो नि शकित और निकाक्षित गुण का लक्षण है अत दाया और बाया पैर क्रमश नि शकित और निकाक्षित अग के प्रतीक हैं। तीसरा अग है निर्विचिकित्सा । विचिकित्सा घृणा या ग्लानि को कहते हैं। इस गुण के आते ही घृणा या ग्लानि समाप्त हो जाती है। हम अपने बाए हाथ को देखें, इस हाथ से हम शरीर के मल-मूत्रादिक को साफ करते हैं। उस समय हम किसी प्रकार की घृणा का अनुभव नही करते है। यह हाथ 'निर्विचिकित्सा' अग का प्रतीक है।
जब हमें किसी बात पर जोर देना होता है। जब हम कोई बात आत्मविश्वास से भरकर कहते है, तब हम अपना दाया हाथ उठाकर बताते हैं, तथा अन्य किसी की बात पर ध्यान नही देते । यह 'अमूढ दृष्टि' का प्रतीक है, क्योंकि इस अग के होने पर वह अपनी श्रद्धा पर अटल रहता है तथा उन्मार्गियो और उन्मार्ग से प्रभावित नही होता। शरीर का पाचवा अग नितम्ब है। इसे सदैव ढाक कर रखा जाता है । इसे खुला रखने पर लज्जा का अनुभव होता है, साथ ही सभ्यता के विरुद्ध भी माना जाता है। यही तो 'उपगृहन' है, क्योंकि इसमे अपने गुण और पर के अवगुण को ढाका जाता है। दूसरे के दोष को उघाडना अपनी जाघ उघाडने की तरह है। नितम्ब उपगूहन अग का प्रतीक है। सम्यक्त्व का छठा अग है 'स्थितिकरण' । जब हमे किसी वजनदार वस्तु को उठाना होता है तो उसे अपनी पीठ पर लाद लेते है। इससे हमे चलने मे सुविधा हो जाती है। पीठ 'स्थितिकरण' अग का प्रतीक है,क्योकि गिरते हुए को सहारा देना ही तो 'स्थितिकरण' है।
हृदय शरीर का सातवा अग है। जब हम आत्मीयता और प्रेम से भर जाते है तब अपने आत्मीय को हृदय से लगा लेते है । हृदय वात्सल्य अग का प्रतीक है। वात्सल्य का अभाव होने पर सम्यक्त्व भी हृदय शून्य ही सिद्ध होता है। मस्तिष्क शरीर का आठवा अग है । इस अग से हम सोच-विचार (विवेक) का काम लेते है। यह प्रभावना अग का प्रतीक है, क्योकि इसके ही आधार पर हम अपने विचारो से दूसरों को प्रभावित करते हैं तथा प्रवचनादि कार्य कर सकते हैं। इस प्रकार इन आठ अगो के पूर्ण होने पर ही हमारा सम्यक्त्व सही रह पाता है, अन्यथा वह तो विकलाग की तरह अक्षम रहता है। यदि हम अपने शरीर के अगों की गतिविधियो की तरह सम्यक्त्व के अगो पर नजर रखे तो फिर हमारा सम्यक्त्व स्थिर रहेगा।