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192 / जैन धर्म और दर्शन
कर लेना ताकि कालान्तर में उसकी स्मृति रह सके, धारणा है । पदार्थ ज्ञान का यही क्रम है। ज्ञात वस्तु के ज्ञान में यह क्रम बड़ी द्रुतगति से चलता है ।
पूर्वोक्त अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का होता है । “अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह” व्यञ्जन अर्थात् अव्यक्त अथवा अस्पष्ट पदार्थों का ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है। यह चक्षु और मन को
कर शेष चार इन्द्रियों द्वारा ही होता है। व्यक्त अथवा स्पष्ट शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाला ज्ञान अर्थावग्रह कहलता है। यह पांचों इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है। जैसे मिट्टी के नये घड़े पर पानी की बूंदें डालने पर वह गीला नहीं होता परन्तु लगातार जल बिन्दुओं को डालते रहने पर वह गीला हो जाता है। उसी प्रकार व्यक्त ग्रहण के पहले अव्यक्त ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है और व्यक्त ग्रहण अर्थाविग्रह है।
बहु-बहु विधादि पदार्थों की उपेक्षा मतिज्ञान बारह प्रकार का होता है तथा विस्तार से इन्हीं भेदों की संख्या 336 हो जाती है।
श्रतजान-मतिज्ञान के पश्चात जो चिन्तन-मनन द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है. वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान द्वारा पदार्थ के विषय में या उसके सम्बन्ध से अन्य वस्तु के विषय में जो विशेष चिन्तन आरम्भ होता है। यह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के लिए शब्द, श्रवण या संकेत आवश्यक है। अमुक शब्दका अमुक अर्थ में संकेत है यह जानने के बाद ही उस शब्द के द्वारा उसके अर्थ का बोध होता है । शब्द,श्रवण, संकेत मतिज्ञान है। उसके बाद शब्द और अर्थ के वाच्य वाचक सम्बन्ध के आधार पर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य । मतिज्ञान के अभाव में श्रुतज्ञान सम्भव नहीं है।
प्राचीन आगम की भाषा में श्रुतज्ञान का अर्थ है वह ज्ञान हो श्रुत अर्थात् शास्त्र से संबद्ध हो। आप्त/वीतरागी पुरुषों द्वारा रचित आगम या शास्त्रों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं।
इस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं.~अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य । अंग प्रविष्ट के बारह भेद हैं तथा अंग बाह्य अनेक भेद वाला है।
अवधिज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है। भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय । देवों और नारकियों को यह ज्ञान जन्म के क्षणों में ही स्वभावतः प्राप्त हो जाता है। अतएव वह भव प्रत्यय है। मनुष्य और पशुओं में यह ज्ञान सम्यक् दर्शानादि विशेष गुणों के प्रभाव से ही उत्पन्न होता है इसलिए इसे गुण प्रत्यय अवधि ज्ञान कहते हैं। इसके छह भेद हैं- 1. अनुगामी, 2. अननुगामी, 3. वर्धमान, 4. हीयमान, 5. अवस्थित, 6. अनवस्थित
___ अनुगामी अवधिज्ञान ज्ञाता का अनुसरण करता हुआ छाया की तरह उसके साथ-साथ जाता है । इसके विपरीत अननुगामी अवधिज्ञान क्षेत्र विशेष से पृथक् होने पर छूट जाता है। वर्धमान अवधिज्ञान शुक्लपक्ष की चन्द्रकलाओं की तरह उत्पत्ति के बाद निरन्तर वृद्धिगत होता रहता है। जबकि हीयमान अवधिज्ञान कृष्णपक्ष की चन्द्र कलाओं की तरह निरन्तर घटता रहता है। अवस्थित अवधिज्ञान एक-सी स्थिति में रहता है तथा अनवस्थित