________________
158 / जैन धर्म और दर्शन
निर्जरा कहते हैं। जैसे-आम आदि फल पककर झर जाते हैं, वैसे ही यह निर्जरा केवल फलोन्मुख हुए कर्मों की होती है। इसे यथाकाल-निर्जरा भी कहते हैं। यह सभी संसारी जीवों के होती है क्योंकि बंधे हुए कर्म अपने-अपने समय पर अपना फल देकर निजीर्ण होते ही रहते हैं । मोक्षमार्ग में इस प्रकार की निर्जरा का महत्त्व नहीं है, क्योंकि इस निर्जरा में राग-द्वेष होने के कारण निर्जरा के साथ-साथ नवीन कर्मों का बंध भी होता है। संवर पूर्वक होने वाली निर्जरा ही मोक्षमार्ग में उपादेय है।।
सविपाक निर्जरा के विपरीत अविपाक निर्जरा है, जिसमें परिपाक-काल से पहले तपादि साधनों के द्वारा, समय से पूर्व ही कर्मों को विलगाया जाता हैं। यह ऐसा ही है जैसे-माली कच्चे आमों को तोड़कर, पाल आदिक में रखकर, उन्हें समय से पूर्व ही पका लेता है। वैसे ही अविपाक निर्जरा परिपाक काल से पर्व ही तपादि विशेष साधनों द्वारा जाती है। यह समय से पूर्व ही कर्मों को गला देती है। मोक्षमार्ग में यह अविपाक निर्जरा ही उपादेय मानी गयी है। यह व्रतधारी,सम्यकदृष्टि पुरुषों के ही होती है ।
निर्जरा का साधन निर्जरा का साधन तप कहा गया है। करोडों वर्षों से सचित-कर्म तप से निर्जरित हो जाते हैं। 'भव कोटि सचियं कम्मं तवसा णिरज्जई'। कहा गया है कि तप के बिना अकेले संवर से ही मोक्ष नही होता। जैसे अर्जित धन उपभोग के बिना समाप्त नहीं होता, वैसे ही संचित कर्म तपस्या के बिना नष्ट नहीं होते। इसलिए कर्म-निर्जरा के लिए तप आवश्यक है। वैदिक-ग्रन्थों में भी “तपसाकिल्विषंहन्ति” तप द्वारा पाप नाश करते हैं। ऐसा कहकर तप को आत्मशोधन का उपाय बताया गया है ।
तप का महत्त्व तप की बहुत महिमा है। जैसे जल मिट्टी को गला देता है, कितु अग्नि में तपने के बाद, उसी घड़े में जल को, अपने भीतर धारण करने की क्षमता आ जाती है, उसी प्रकार तप के द्वारा
आत्मा में अनेक गुणों की अभिव्यक्ति हो जाती है। जैसे सोने को तपाने पर स्वर्ण की आभा निखर उठती है; ठीक वैसे ही तपस्वी जन जितना ही अधिक दुर्द्धर तप करते हैं, उनकी आत्मा में उतना ही निखार आता है।
जैन शास्त्रों में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । उसे मोक्षमार्ग का प्रमुख अंग बताकर, धर्म निरूपित किया गया है। 'धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संयमो तवा तप के महात्म्य का
1 स सि 8/23 2 का अनु गा 104 3 स सि 8/13 4 का अनु गा 104 5 त सू 9/13 6 भ आ. मूगा 1846 7 प्रतिक्रमण सूत्र 1847