________________
172 / जैन धर्म और दर्शन
का कोई कारण नहीं बनता। यदि बनता है तो फिर मुक्त होने का कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि मुक्ति तो पूर्णता का नाम है। संसार में लौटना अपूर्णता की निशानी है । अकस्मात् कोई कार्य नहीं होता है। यदि अकस्मात् ही उनका पुनरागमन होता है तब तो किसी जीव को कभी भी मोक्ष हो ही नहीं सकता, क्योंकि मुक्ति हो जाने के बाद भी अकारण ही उसका पुनः आगमन हो जाएगा। 1
जैन दर्शन में जीव को दूध में घी की तरह माना गया है। जिस प्रकार मथने / भाने आदि क्रिया विशेषों से एक बार दूध से घी को अलग कर लेने पर घी पुनः दूध रूप नहीं होता, न ही वह दूध में मिलता है, अपितु दूध में मिलने पर भी वह उस पर तैरता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी एक बार शुद्ध हो जाने के बाद पुनः अशुद्ध नहीं होता, न ही वह दुबारा संसार में लौटता है। बल्कि लोक के शिखर पर विराजमान हो जाता है। अतः अवतारवाद को मानने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। जैन दर्शन में इसीलिए अवतारवाद को स्थान नहीं दिया गया है। वस्तुतः जैन दर्शन अवतारवादी न होकर उत्तारवादी है, जो समस्त प्राणियों को संसार सागर से पार उतरने का मार्ग प्रशस्त करता है
1
इसके अतिरिक्त मुक्तात्माओं के पुनरागमन नहीं होने में एक दूसरा वैज्ञानिक कारण भी है, वह है- 'गुरुत्व का अभाव । गुरुत्व स्वभाव वाले पौद्गलिक पदार्थ ही ऊपर से नीचे गिरते हैं, मुक्तात्माओं में यह नहीं होता है । संसारी आत्मा-कर्म-पुद्गलों के संयोग से गुरुत्व रूप हो जाती है । मुक्तात्माओं में उसका अभाव हो जाता है। अतः पेड़ से टूटने वाले फल के टपकने की तरह मुक्तात्माओं की मोक्ष से च्युति नहीं होती है और न ही पानी भर जाने से जहाज की तरह डूबना होता है । 2
संसार खाली नहीं होगा
यहां हमारे मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि जब मुक्तजीवों का पुनरागमन नहीं होता और संसारी जीव सीमित हैं, तो फिर जीवों के निरंतर मुक्त होत रहने से एक दिन ऐसा भी आ सकता है जबकि पूरा संसार खाली हो जाए ? उक्त प्रश्न के लिए भी कोई अवकाश नहीं है । क्योंकि जीवों की राशि अनंत है । अनत का अर्थ वह राशि है जो आयरहित व्यय होते रहने के बाद भी अव्यय हो अर्थात् ज्यों की त्यों बनी रहे ।
जिस प्रकार भविष्यत काल प्रति समय घट रहा है फिर भी वह अनंत ही है, उसकी राशि में कोई न्यूनता नहीं आती है। जब भी भविष्य काल की परिगणना की जाती है वह अनंत ही रहता है । यद्यपि वह प्रतिक्षण क्षीण हो रहा है। उसी प्रकार निरंतर मुक्त होते रहने से यद्यपि जीव राशि में न्यूनता आती है फिर भी उस राशि का कभी भी अंत नहीं होता । परिमित वस्तु ही घटती-बढ़ती है तथा उसी का अंत संभव है। अपरिमित वस्तु में
1. त. वा. 10/4/6 पृ. 704
2. त. वा. 10/8 पृ. 704
3. ध. पु. 4, पृ. 235