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186 / जैन धर्म और दर्शन
राग-द्वेष व आकुलता की जननी है और पापो में प्रवृत्ति कराने वाली है। पाचो इन्द्रियो के विषयों के आधीन व्यक्ति कभी भी मत्य का साक्षात्कार नही कर सकता। आत्म-कल्याण के पथ पर चलने वाले सच्चे गुरु पचेन्द्रिय विजयी होते हैं। वे पाँचो इन्द्रियो के किसी एक विषय पर भी आसक्त नही होते । विषयासक्ति तो साधुत्व पर कलक है, अत सच्चे गुरु को पचेन्द्रिय विजयी होना चाहिए।
आरभ रहितता आरभ का मतलब है नौकरी, व्यापार, उद्यम, सेवा, खेती आदि कार्य जो प्राणियों को दुख पहुचाने वाली प्रवृत्तिया है। ये कार्य साधारण प्राणियो मे भी पाए जाते है । मनुष्य इन्हीं के गोरख-धधे मे फसकर दुःखी है। अत गुरु, जिन्हें हम अपना आदर्श बना रहे है, उन्हें इनसे दूर रहना चाहिए।
परिग्रह रहितता यह सच्चे गुरु की तीसरी विशेषता है। ममत्व भाव को परिग्रह कहते है । जिनके पास थोडा भी बाह्य या भीतरी पदार्थो के प्रति ममत्व हो, वे सच्चे गुरु नही कहला सकते, क्योकि ममत्व तो समस्त विकारो का मूल है। पापो मे परिग्रह सबसे बड़ा पाप है, इसके होने पर अन्य पार्यों मे प्रवृत्ति अवश्यभावी होती है। परिग्रह आकुलता का कारण तथा समता व वीतरागता का विनाशक है। इसलिए सच्चे साध अपने पास कछ भी परिग्रह नही रखते । यहा नक कि वे अपने शरीर पर वस्त्र का एक छोटा सा टुक्डा भी नही रखते।
___ सतत् ज्ञानार्जन शीलता सतत ज्ञानाभ्यास सच्चे गुरु की चौथी विशेषता है। विषय कषायों से दूर होकर जब साधुगण अपने आत्म ध्यान से बाहर आते है तो सासारिक प्रपचों से दूर हट धर्मशास्त्रो में अपने चित्त को रमाये रखते है। यही उनकी सतत् ज्ञानार्जनशीलता है। ज्ञानाभ्यास से चित्त मे निर्मलता, समता व वीनरागता की सिद्धि व वृद्धि होती रहती है।
प्रगाढ़ ध्यानलीनता और तपस्विता सच्चे गुरु सदा अपनी आत्मा के ध्यान में लीन रहते हैं। वह अपनी साधना की अभिवृद्धि के लिए शक्ति के अनुसार अनेक प्रकार का तप करते रहते हैं। आत्म-साधक गुरु का तपस्वी होना अनिवार्य है। तप से ही आत्मा में निखार आता है। इसके विपरीत भोग-विलासो मे रत सुविधा भोगी नामधारी गुरु सच्चे गुरु नही कहला सकते । तपस्विता सच्चे गुरु की छठी कसौटी है।
तीन मूढ़ता इस प्रकार सम्यक् दृष्टि सच्चे देव, शास्त्र और गुरु के चरणों में सदा समर्पित रहता है। वह किसी प्रकार की ऐसी अज्ञानपूर्ण प्रवृत्तिया नहीं करता जिसका कोई अर्थ न हो तथा जिससे कोई धार्मिक या सामाजिक हानि उठानी पडती हो। वह एक वैज्ञानिक की तरह तर्क की कसौटी पर कसकर जो कुछ उसके आत्महित में हो,उसे ही धर्म बुद्धि से स्वीकार करता है। लोक में चली आ रही अर्थहीन रुढियो को वह धार्मिक मूर्खता समझता है। जैन दर्शन में इन्हें मूढता कहा गया है और वह तीन प्रकार की होती है
1 रक श्रावकाचार-10