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130 / जैन धर्म और दर्शन
आकार वाला शरीर बनाने वाला कर्म स्वाति संस्थान नाम-कर्म है।
(4) कुब्जक : कुबड़ा शरीर बनाने वाले कर्म को 'कुब्जक संस्थान नाम-कर्म' कहते
(5) वामन : बौना शरीर बनाने वाला कर्म ‘वामन-संस्थान नाम-कर्म' है।
(6) हुंडक : अनिर्दिष्ट आकार को हुंडक कहते हैं । ऐसे अनिर्दिष्ट आकार का विचित्र शरीर बनाने वाले कर्म को 'हुंडक संस्थान नाम-कर्म' कहते हैं।
9. संहनन : अस्थि बंधनों में विशिष्टता को उत्पन्न करने वाले कर्म को 'संहनन नाम कर्म' कहते हैं। वेष्टन, त्वचा, अस्थि और कीलों के बंधन की अपेक्षा इसके छह भेद है-1. वज्र वृषभ नाराच, 2. वज्र-नाराच-संहनन, 3. नाराच संहनन, 4. अर्द्ध नाराच संहनन, 5. कीलक संहनन,6. असंप्राप्तासृपाटिका संहनन ।'
10. वर्ण : शरीर को वर्ण (रंग) प्रदान करने वाले कर्म को 'वर्ण नाम-कर्म' कहते हैं। यह कृष्ण,नील,रक्त, पीत एवं श्वेत रूप पांच प्रकार के होते हैं।
___11. गंध : शरीर को सुगंध एवं दुर्गध प्रदान करने वाले कर्म को 'गंध नाम-कर्म' कहते हैं।
_12. रस : तिक्त, कटु, आम्ल, मधुर और कसैला रस अर्थात् स्वाद उत्पन्न करने वाले कर्म को 'रस नाम-कर्म' कहते हैं।
13. स्पर्श : हल्का, भारी, कठोर, मृदु, शीत, उष्ण तथा स्निग्ध, रुक्ष आदि स्पर्श के भेदों से शरीर को प्रतिनियत स्पर्श उत्पन्न करानेवाला कर्म 'स्पर्श नाम-कर्म' कहलाता है।
___14. आनुपूर्व्य : देह-त्याग के बाद नूतन शरीर धारण करने के लिए होने वाली गति को 'विग्रह गति' कहते हैं। विग्रह गति में पूर्व शरीर का आकार बनाने वाले कर्म को 'आनुपूर्व्य नाम-कर्म' कहते हैं। गतियों के आधार पर यह चार प्रकार का
___15. अगुरुलघु : जो कर्म शरीर को न तो लौह पिण्ड की तरह भारी, न ही रुई की पिण्ड की तरह हल्का होने दे, वह 'अगुरुलघु नाम-कर्म' है। इस कर्म से शरीर का आयतन बना रहता है । इसके अभाव में जीव स्वेच्छा से उठ-बैठ भी नहीं सकता।
16. उपघात : इस कर्म के उदय से जीव विकृत बने हुए अपने ही अवयवों से कष्ट पाता है । जैसे प्रतिजिह्वा और चोरदन्त आदि ।
17. परघात : दूसरों को घात करने के योग्य तीक्ष्ण नख, सींग, दाढ़ आदि अवयवों को उत्पन्न करने वाले कर्म को 'परघात नाम-कर्म' कहते हैं।'
18. उच्छवास : इस कर्म की सहायता से श्वासोच्छवास चलता है या ग्रहण होता है।
19. आतप : जिस कर्म के उदय से अनुष्ण शरीर में उष्ण प्रकाश निकलता है। यह कर्म सूर्य और सूर्यकान्त मणियों में रहने वाले एकेन्द्रियों को होता है। उनका शरीर शीतल होता है तथा ताप उष्ण।
1 ध पु 6/1 सूत्र 37 गो सा कर्म का गा 35. सर्वा सि 390 2 ध पू6/1 पृ 11, पृ59 3 ध पू6/59