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126 / जैन धर्म और दर्शन
कषायों का अभाव नहीं, अपितु ईषत् कषाय है। इनके नौ भेद है-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद । इनका अर्थ इनके नामों से ही स्पष्ट है।
इस प्रकार दर्शन मोहनीय के तीन तथा कषाय वेदनीय के सोलह और नोकषाय वेदनीय के नौ, इस प्रकार मोहनीय कर्म के कुल अट्ठाईस भेद हो जाते हैं।
मोहनीय कर्म के बंध का कारण : सत्यमार्ग की अवहेलना करने से और असत्य मार्ग का पोषण करने से आचार्य, उपाध्याय, गुरु, साधु संघ आदि सत्य-पोषक आदर्शों का तिरस्कार करने से दर्शन-मोहनीय कर्म का बंध होता है, जिसके फलस्वरूप जीव के संसार का अंत नहीं होता।
स्वयं पाप करने से तथा दूसरों को कराने से, तपस्वियों की निदा करने से, धार्मिक कार्यों में विघ्न उपस्थित करने से, मद्य-मांसादि का सेवन करने और कराने से, निदोष व्यक्तियों में दूषण लगाने से चारित्र मोहनीय कर्म का बंध होता है।
आयु कर्म जीव की किसी विवक्षित शरीर में टिके रहने की अवधि का नाम आयु है। इस आयु का निमित्तभूत कर्म ‘आयु' कर्म कहलाता है। जीवों के जीवन की अवधि का नियामक आयु है। इस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु के मुख में जाता है। मृत्यु का कोई देवता या उस जैसी कोई अन्य शक्ति नही है। अपितु आयु कर्म के सद्भाव और क्षय पर ही जन्म और मृत्यु अवलंबित है। इस कर्म की तुलना कारागार से की गयी है। जैसे न्यायाधीश अपराधी को अपराध के अनुसार नियत समय के लिए कैद में डाल देता है। अपराधी की इच्छा होने पर भी वह अपनी अवधि को पूर्ण किये बिना मुक्त नहीं हो सकता वैसे ही आयु कर्म के कारण जीव देह-मुक्त नहीं हो सकता। आयु कर्म का कार्य सुख-दुःख देना नहीं है, कितु निश्चित समय तक किसी एक भव में रोके रहना है।
आयु दो प्रकार की होती है-अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय।'
कारण प्राप्त होने पर जिस आयु की काल मर्यादा में कमी हो सके, उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं, तथा बड़े-बड़े कारण आने पर भी निर्धारित आयु की काल मर्यादा एक क्षण को भी कम न हो, उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। अपवर्तनीय आयु
1 तवा 6/14/13 2 जैन सि. को 1251 3 यद भावाभावयो जीवित मरण तदायुः/त वा 8/102, पृ 469 4 जीवस्स अवट्ठाण करेदि हलिब्बठार-कर्म काड-11 5 दुक्ख ण देइ आउ णवि सुह देइ चउसुवि गई सु।
दुक्ख सुहाणाहार धरेई देहट्ठिय जीव ।। ठाणाग 2/4/105 टीका 6 प पु 10/233-34