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जीव और उसकी विविध अवस्थाएं / 71
कि "उपयुज्यते वस्तु परिच्छेदं प्रति व्यापर्यते जीवोऽनेनेति उपयोगः” अर्थात् जिसके द्वारा जीव वस्तु के परिच्छेद/परिज्ञान/बोध के लिए व्यापार करता है वह उपयोग है। उपयोग दो प्रकार का होता है । 1. दर्शनोपयोग',2. ज्ञानोपयोग।
दर्शन उपयोग–यह निराकार उपयोग है। इसमें पदार्थों का सामान्य प्रतिभास मात्र होता है । जब चेतना की शक्ति किसी वस्तु विशेष के प्रति विशेष रूप से उपयुक्त न होकर मात्र सामान्य रूप से उसे ग्रहण करती है, उसे दर्शनोपयोग कहते हैं।' अर्थात् इस परिणति में विषय विषयी का संपर्क मात्र होता है।
ज्ञान उपयोग-यह साकार उपयोग है। चेतना की शक्ति जिस समय ज्ञानाकार न होकर ज्ञेयाकार रूप हो जाती है. उस समय शक्लत्व. कृष्णत्व आदि विशेष रूपों का ग्रहण होने लगता है। वह सामान्य मात्र न होकर विशेष रूप से होने लगता है। इसे ज्ञानोपयोग कहते हैं।
___ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में यह अंतर है-ज्ञान साकार है, दर्शन-निराकार । ज्ञान सविकल्पक है दर्शन निर्विकल्पक । उपयोग की सर्वप्रथम भूमिका दर्शन है, जिसमें केव सामान्य सत्ता का भान होता है। इसके पीछे क्रमशः उपयोग विशेषयाही होता जाता है। यह ज्ञानोपयोग है। पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है। इसलिए दर्शन निराकार और निर्विकल्पक है। दर्शन के पहले ज्ञान को इसीलिए ग्रहण किया जाता है क्योंकि निर्णयात्मक होने के कारण ज्ञान अधिक महत्त्व रखता है। वैसे उत्पत्ति की दृष्टि से ज्ञान का स्थान बाद में है,दर्शन का पहले।
ज्ञानोपयोग के दो भेद है-स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान ।' स्वभाव-ज्ञान पूर्ण होता है। उसे किसी भी इंद्रिय की अपेक्षा नहीं रहती। सीधा आत्मा से होने वाला पूर्ण ज्ञान स्वभाव ज्ञान है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष और साक्षात् है। इसी ज्ञान को जैन दर्शन में केवल ज्ञान कहा जाता है। यह ज्ञान अकेला और असहाय होता है। अतः केवल ज्ञान कहलाता है। इसमें जगत के सारे पदार्थ प्रतिबिबित हो जाते हैं। इसलिए भी इसे केवल ज्ञान कहते हैं। कर्म सापेक्ष ज्ञान विभाव ज्ञान कहलाते है। समस्त ससारी जीवों का ज्ञान विभाव ज्ञान है।
विभाव ज्ञान के पुनः दो भेद होते हैं-सम्यक ज्ञान और मिथ्या ज्ञान । सम्यक ज्ञान चार प्रकार का होता है-मति ज्ञान,श्रतु ज्ञान. अवधि ज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान ।'
मति ज्ञान-इंद्रिय और मन की सहायता से होने वाला जीव और अजीव विषयक ज्ञान मति ज्ञान है।
श्रुत ज्ञान-मति ज्ञान के उपरांत जो चितन,मनन द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है उसे 'श्रुत
1 जैन लक्षणावली 1/276 2 5 स गा 4 3 अप्रकार दर्शनम् सर्वा सि 118 4 द्र.स गा.43 5 सागारोणाणोवजोगो धप. 11/334 सर्वा सि 118 6 दसण पुव्व णाण द्र. स. 43 यह कथन छाम्थो की अपेक्षा है। 7 णाणुव जोगो दुविहो सहावणाण विहावणाणति-नि सा म् 10 8 वही 11-12