________________
कर्म के भेद-प्रभेद
कर्म के मूल भेद गेन कर्म-शास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियां हैं, जो प्राणियों को अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। वे हैं-1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. वेदनी", 4. मोहनीय,5. आयु,6. नाम,7. गोत्र,8. अंतराय ।'
इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण,मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म घातिया है,क्योंकि 'नसे आत्मा के गुणों का घात होता है। शेष चार कर्म अघातिया हैं क्योंकि ये आत्मा के 'कसी गुण का घात नहीं करते, बल्कि आत्मा को एक ऐसा रूप प्रदान करते हैं जो उसका नजी नहीं है, अपितु भौतिक है।
ज्ञानावरण कर्म से आत्मा के ज्ञान गुण का घात होता है। दर्शनावरण कर्म आत्मा के दर्शन-गुण का घात करता है। मोहनीय कर्म जीव के सम्यक् श्रद्धा और चरित्र-गुण को नष्ट करता है। अंतराय कर्म से जीव का वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है। आयु कर्म से आत्मा को नरकादि गतियों की प्राप्ति होती है। नाम कर्म के कारण जीव को चित्र-विचित्र शरीर और गतियां मिलती हैं, तथा गोत्र कर्म प्राणियों में उच्चत्व और नीचत्व का कारण है।
__इन आठ कर्मों के कार्यों को दर्शाने के लिए आठ उदाहरण दिए गए हैं। ज्ञानावरणी' कर्म का कार्य कपड़े की पट्टी की तरह है। जिस प्रकार आंख पर बंधी पट्टी ष्टि का प्रतिबंधक है, वैसे ही ज्ञानावरण-कर्म ज्ञान-गुण को प्रकट नहीं होने देता। दर्शनावरणी कर्म प्रतिहारी की तरह है। जिस प्रकार द्वारपालो की अनुमति के बिना किसी
हल में प्रवेश नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार दर्शनावरण-कर्म जीव को अनंत-दर्शन करने से रोकता है। वेदनीय' कर्म तलवार की धार पर लगे शहद के स्वाद की तरह होता है, गो एक क्षण को सुख देता है, पर उसका परिणाम दुःखद होता है। 'मोहनीय' कर्म मद्य की रह है। जिस प्रकार मद्य के नशे में व्यक्ति को अपने हित-अहित का विचार नहीं रहता तथा रह कर्तव्य और अकर्तव्य का विचार किए बिना कुछ भी आचरण करता है, उसी प्रकार नोहनीय कर्म भी जीव को विवेक-शून्य कर उसकी आचार और विचार शक्ति को रोकता है। 'आयु' कर्म बूंटे की तरह है । जिस प्रकार बूंटे से बंधा पशु उसके चारों ओर ही घूमता है, वैसे ही आयु कर्म से बंधा जीव उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। 'नाम' कर्म चित्रकार की तरह है। जिस प्रकार चित्रकार छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे अनेक प्रकार के चित्रों का निर्माण
1 गो स कर्मकाड 10 2 गो सा कर्मकाड 21