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118 / जैन धर्म और दर्शन
यह चक्र अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है तथा भव्य जीवों की अपेक्षा अनादिसांत ।
अनादि का अंत कैसे? ऐमा नहीं है कि इस अनादि कर्म-बंध का अंत असंभव ही हो। इस विवेचन में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कर्म-चक्र राग-द्वेष के निमित्त से घड़ी यंत्र की भांति सतत् चलता रहता है, तथा जब तक राग-द्वेष और मोह के वेग में कमी नहीं आती तब तक यह कर्म-चक्र निर्बाध रूप से चलता रहता है। राग-द्वेष के अभाव में क्रियाएं कर्म-बंध नहीं करातीं। इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री कुंद-कुंद स्वामी ने 'समयमार' में कहा है कि कोई व्यक्ति अपने शरीर को तेल से लिप्त कर धृली-पूर्ण स्थान में जाकर शम्त्र संचालन करता है, और ताड़, केला,बांस आदि के वृक्षों का छेदन करता है, उस समय वह धूल उड़कर उसके शरीर से चिपक जाती है । वस्तुतः देखा जाए तो उस व्यक्ति का शस्त्र-संचालन शरीर में धूल चिपकाने का यही कारण नहीं है। वास्तविक कारण तो तेल का लेप ही है, जिससे धूल का संबंध होता है। यही कारण है कि जब व्यक्ति बिना तेल लगाए पूर्वोक्त क्रियाएं करता है तो धृल नहीं लगती। इसी प्रकार गग-द्वेष रूपी तेल से लिप्त आत्मा में कर्म-रज आकर चिपकती है और आत्मा को मलिन बनाकर इतना पराधीन कर देती है कि अनंत-शक्ति संपन्न जीवात्मा, कठपुतली की तरह,कर्मो के इशारे पर नाचा करना है ।
जीव और कर्म के संबंध को मंतति की अपेक्षा अनादि मानते हुए भी पर्याय की दृष्टि से सादि-संबंध माना गया है। बीज और वृक्ष के संबंध पर दृष्टि डालें तो संतति की अपेक्षा उनका कारण-कार्य भाव अनादि होगा। जैसे अपने सामने लगे आम के वृक्ष का कारण हम उस बीज को कहेंगे, यदि हमारी दृष्टि प्रतिनियत आम के पेड़ तक ही जाती है तो हम उसे उस बीज से उत्पन्न कहकर सादि-मंबंध सूचित करेंगे। किंतु इस बीज के उत्पादक अन्य वृक्ष तथा अन्य वृक्ष के जनक अन्य बीज की परंपरा पर दृष्टि डालें तो इस दृष्टि से यह संबंध अनादि मानना होगा। कुछ दार्शनिकों का मानना है कि जो अनादि हैं उमका अंत नहीं हो सकता. किंत वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। यह कोई अनिवार्य नहीं है कि अनादि वस्त अनंत ही है। वह अनंत भी हो सकती है तथा विरोधी कारण के आ जाने पर अनंत होने वाले संबंध का मूलोच्छेद भी किया जा सकता है, कहा भी है
___ दग्धे बीजे यथात्यन्ते प्रादुर्भवति नाड्कुरः।
__ कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाड्कुरः ॥' अर्थात् बीज के जल जाने पर पुनः नवीन वृक्ष के निमित्त बनने वाला अंकुर उत्पन्न
ससार से मुक्त होने की योग्यता वाले ससारी जीवो को भव्य तथा वैसी योग्यता से रहित जीवो को अभव्य कहते हैं। भव्य जीव अपने पुरुषार्थ से अनादिकालीन कर्म सतति को उच्छिन्न कर सकते हैं जबकि अभव्य जीवो के लिए वह सभव नही है। इसी अपेक्षा से भव्य जीवो की सतति को अनादि शात तथा अभव्यो को अनादि अनत कहा गया है। समयसार गा 252-255 त वा. 10/9 पर उद्धृत, पृ725