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तत्त्व एवं द्रव्य/ 61
रस बदलकर रंग नहीं बन सकता। उसी तरह गंध और स्पर्श भी अपने मूल रूप में नहीं बदलते । गुण त्रैकालिक होते हैं। यही गुणों की नित्यता है। पर्यायों में परिवर्तन होते रहने के कारण उन्हें अनित्य कहते हैं।
इस प्रकार गुण भी सत्, द्रव्य की तरह नित्यानित्यात्मक है। चूंकि सत् नित्यानित्यात्मक है, इसलिए उसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण वाला कहा गया है । गुण नित्य है,पर्याय अनित्य हैं, इसलिए द्रव्य को गुण पर्याय वाला भी कहते हैं। इन तीनों लक्षणों में ऐक्य है इसलिए आचार्य श्री कुंद कुंद ने द्रव्य का लक्षण तीनों प्रकार से किया है
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वय धवत्त संजतं ।
गुण पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्ह ॥ पं.का. 10 अर्थात्-भगवान जिनेन्द्र द्रव्य का लक्षण सत् कहते हैं; वह उत्पाद व्यय और धौव्य से युक्त है; अथवा जो गुण और पर्यायों का आश्रय है, वह द्रव्य है।
आचार्य श्री समन्त भद्र ने एक उदाहरण से द्रव्य की नित्यानित्यात्मकता की सुंदर प्रस्तुति की है
घट मौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम।
शोक-प्रमोद माध्यस्थ्यं जनोयाति सहेतकम। आ.मी.59 एक राजा है जिसकी एक पुत्री है और एक पुत्र । उसके पास सोने का घड़ा है, पुत्री उसे चाहती है। पुत्र उसे तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्र की भावना को पूर्ण करने के लिए घड़े को तोड़कर मुकुट बनवा देता है। घट के नाश से पुत्री दुःखी होती है, पुत्र आनंदित होता है। राजा स्वर्ण का इच्छुक है, जो कि घट के टूटने और मुकुट के बनने दोनों में समान है। इसलिए वह मध्यस्थ रहता है। अतः वस्तु त्रयात्मक
जैन दर्शन मान्य पदार्थ की नित्यानित्यात्मकता को पातञ्जलि ने भी स्वीकार किया है, वे लिखते हैं—“द्रव्यं नित्यं आकृतिरनित्या। सुवर्ण कयाचित् आकृत्या युक्तो पिण्डों भवति । पिण्डाकतिमपमर्दय रुचकाः क्रियन्ते । पुनरावृतः सुवर्ण पिण्डः पनरपरा च आकत्या: युक्त: खदिरांगार सदशें कुण्डले भवतः। आकृति अन्या-च अन्याच भवति द्रव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमर्देन द्रव्य मेवावशिष्यते ।"
अर्थात् द्रव्य नित्य है और आकार यानि पर्याय अनित्य है सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकार से पिण्ड रूप होता है। पिण्ड रूप का विनाश करके उसकी माला बनाई जाती है। माला का विनाश करके उसके कड़े बनाए जाते हैं । कड़ों को तोड़कर उससे स्वास्तिक बनाये जाते हैं। स्वास्तिक को गलाकर फिर स्वर्ण पिण्ड हो जाता है। उसके अमुक आकार का विनाश करके खदिरांगार के सदृश दो कुण्डल बना लिये जाते हैं। इस प्रकार आकार बदलता रहता है परंतु द्रव्य वही रहता है। आकार के नष्ट होने पर भी द्रव्य शेष रहता ही
1. सहभुवों हि गुणा, ध पु: 174 2. क्रमवर्तिनः पर्यायाः आलापपद्धति पृ. 140 3. पाताल महाभाष्य 1/1/1