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60 / जैन धर्म और दर्शन
ही नहीं सकता।
नित्या-नित्यात्मकता प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहने के कारण द्रव्य अनित्य है तथा परिवर्तित होते रहने के बाद भी वह अपने मूल में अपरिवर्तित है. अतः द्रव्य नित्य भी है। इसलिए जैन दर्शन में द्रव्य को नित्यानित्यात्मक कहा गया है। यदि द्रव्य सर्वथा नित्य होता तो जगत के सारे पदार्थ कूटस्थ हो जाते । न तो नदियाँ बह पातीं, न ही पेड़ों के पत्ते हिल पाते । बालक, बालक ही रहता, वह युवा न हो पाता, युवा युवा ही रहता, वह वृद्ध नहीं हो पाता; वृद्ध वृद्ध ही रहता, वह मर न पाता। जो जैसा है वह वैसा ही रहता। यदि पदार्थ अनित्य ही होता तो प्रतिक्षण बदलाव होते रहने के कारण हम एक-दूसरे को पहचान ही नहीं पाते । प्रतिक्षण होने वाले परिवर्तन की इस दौड़ में किसी का किसी से परिचय ही नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में न तो हमें कोई स्मृति होती, न ही होते हमारे कोई संबंध । जबकि ऐसा है ही नहीं, क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष और अनुभव के विपरीत है। अतः जैन दर्शन में पदार्थ को नित्यानित्यात्मक कहा गया है।
नित्यानित्यात्मक होने के कारण द्रव्य को गुण-पर्याय वाला कहा गया है। गुण पदार्थ का नित्य अंश है, वह कभी भी नष्ट नहीं होता। उसकी अवस्थाएं/पर्यायें बदलती रहती हैं। पदार्थ अनेक गुणों का समूह है। उनमें होनेवाला परिवर्तन ही पर्याय है। प्रत्येक गुण द्रव्य आश्रित रहता है किंतु स्वयं गुण हीन होता है। इसलिए यह गुण होकर भी निर्गुण कहलाता है। गुण पदार्थ में सर्वत्र रहते हैं। ऐसा नहीं है कि वह पदार्थ के किसी एक अंश में रहता हो; वह तो तिल में तेल की तरह पूरे पदार्थ में व्याप्त होकर रहता है। सर्वत्र होने के साथ-साथ यह सर्वदा पाया जाता है, इसलिए इसे नित्य कहते हैं। पर्यायें क्षणक्षयी होती हैं, प्रतिक्षण मिटते रहने के कारण ये (पर्यायें) अनित्य कहलाती हैं।
समझने के लिए, आम एक पदार्थ है। स्पर्श, रस, गंध तथा रूप इसके गुण हैं। इन गुणों का समूह ही आन है। यदि इन्हें पृथक कर लिया जाये तो आम नाम का कोई पदार्थ ही नहीं बचता। किंतु इन्हें पृथक किया ही नहीं जा सकता। ये द्रव्य के अनन्य अंग हैं। द्रव्य से इनका नित्य संबंध रहता है। आम का स्वाद, रंग, गंध और स्पर्श रूप गुण आम के रग-रग में समाये हैं। इनके अतिरिक्त आम नाम का कोई पदार्थ ही नहीं बचता। अतः वस्तु गुणों का समूह रूप है। इन गुणों में परिवर्तन होता रहता है। आम खट्टे से मीठा, मीठे से कड़वा. कड़वे से कसैला हो सकता है, उसका हरा रंग बदलकर पीला या काला हो सकता है, वह कठोर से मृदु अथवा पिलपिले स्पर्श वाला हो सकता है, सुगंधित से वह दुर्गधित भी हो सकता है। ये सब पूर्वोक्त चार गुणों की अवस्थाएं हैं। किंतु गुणों में परस्पर कोई परिवर्तन नहीं होता । उसका रंग बदलकर रस नहीं होता,
1. सर्वा.सि., पृ232 2. गणपर्ययवद् द्रव्यमत. स 5/38 3. का अनु. गा 241 4. गुणविकारा : पर्यायाः आलापपद्धति पृ. 134 5. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा, त. सू. 5/41