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जैन इतिहास-एक झलक / 45
के लिए कालवंग नामक गांव को भेंट करने का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि उस काल के श्वेतांबर भी अपने को निपंथ न कहकर दिगंबर संघ को ही निपंथ मानते थे। यदि ऐसा नहीं था तो वे स्वयं को श्वेतपट तथा दिगंबरों को निर्घथ न लिखने देते।'
उक्त संदर्भो में दिगंबरत्व की प्राचीनता निर्विवाद रूप से सिद्ध होती है।
दिगंबर और श्वेतांबर मान्यताओं में भेद दिगंबर और श्वेतांबर दोनों संप्रदायों में सैद्धांतिक रूप से कोई विशेष भेद नहीं है । जो कुछ भी है उसमें अधिकांश व्यावहारिक रूप में ही है। दोनों ही संप्रदाय अहिंसा और अनेकांतवाद का अनुसरण करते हैं। आत्मा-परमात्मा, मोक्ष और संसार आदि के स्वरूप के विषय में भी कोई भेद नहीं है। सात तत्त्वों का स्वरूप भी दोनों परंपराओं में एक-सा ही वर्णित है। कुछ परिभाषाओं को छोड़कर कर्म सिद्धांत में भी कोई मौलिक भेद नहीं है । जो कुछ भी भेद है वह आचारगत शिथिलता के कारण ही उत्पन्न हुआ है। अपनी इसी शिथिलाचार पर आवरण डालने के लिए अनेक कल्पित कथाओं को गढ़कर स्त्री मुक्ति की कल्पना की गयी तथा सवस्त्र मुक्ति को सैद्धांतिक रूप दिया गया। स्वयं श्वेतांबर आगम के प्राचीन ग्रंथों में अनेक स्थलों पर उनके उक्त कल्पित सिद्धांतों से विरोध आता है। इस विषय में पं. वेचरदासजी दोशी द्वारा रचित 'जैन साहित्य में विकार' तथा पं. अजित कुमार शास्त्री कृत 'श्वेतांबर मत समीक्षा' दृष्टव्य है। वहां उन्होंने इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। नीचे यहां कछ श्वेतांबर मान्यताओं का उल्लेख करते हैं, जो दिगंबर मान्यता के विरुद्ध ठहरती हैं
श्वेतांबर
दिगंबर 1. केवली कवलाहार (भोजन) करते हैं
नहीं करते हैं केवली को नीहार होता है
नहीं होता है सवस्त्र मुक्ति हो सकती है मुक्ति के लिए दिगंबर होना अनिवार्य है स्त्री मुक्ति प्राप्त कर सकती है.
नहीं कर सकती है गृहस्थ वेश में मुक्ति संभव
नहीं,माधु होना अनिवार्य है मरूदेवी को हाथी पर चढ़े ही मुक्ति गमन
असंभव भरत चक्रवर्ती को भवन में ही केवल ज्ञान
असंभव 8. वस्त्राभूषणों से सुसज्जित प्रतिमा की पूजा पूर्णतः दिगंबर और
वीतराग प्रतिमा ही पूजा योग्य मुनियों के वस्त्र पात्रादि 14 उपकरण
नग्न दिगंबर रहते हैं 10. तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्री होना स्त्री तीर्थकर नहीं हो सकती
कदम्बना श्री विजय शिवमृगेश वर्मा कालवग ग्राम त्रिधा विभज्य दत्तवान् अत्रपूर्वमर्हच्छाला परम-पुष्कलस्थान निवासिभ्य: भगवदहम्महाजिनेन्द्र देवताभ्य एकोभाग: द्वितीयोहत्प्रोक्त सद्धर्मकरण परस्य श्वेतपट महाश्रमणसघोपभोगाय तृतीयो निर्यथ महाश्रमण सघोपभेगायेति । जैहि. भा. पृ. 229