Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 18
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/१६ छगनलाल : अरे, अरे! शांतिलाल सेठ! तुम यह क्या कह रहे हो? शांतिलाल सेठ : हाँ भाई! मैं सच कह रहा हूँ। जुआ खेलना महापाप है। अपने समान सज्जन पुरुषों को यह शोभा नहीं देता। अनंतअनंत काल में यह मनुष्य जन्म मिला है। उसे पापभावों में कैसे व्यर्थ गमा दें। अब तो ऐसा उपाय करना है कि जिससे आत्मा का हित होवे। मगनलाल : अरे भाई! आज अचानक यह वैराग्य कहाँ से उमड़ आया है? शांतिलाल सेठ : प्रिय भाइयो! मैं कुछ बातें करने के लिये ही आप लोगों के पास आया हूँ। आज मेरे बड़े भाई ने मुझे अपूर्व शिक्षा दी है। हम सबको जो यह अमूल्य मनुष्यभव और जैनधर्म मिला है, उसी की सार्थकता के लिये कुछ करना चाहिये। छगनलाल : आपके भाई ने जीवन की सार्थकता का आपको क्या उपाय बताया है? हमें भी बताओ। मारकाट G ( JY नरकनि शांतिलाल सेठ : सर्वप्रथम तो यह जुआ जैसा महापापभाव हम सभी को शोभा नहीं देता। इस पाप के फल से तो नरकों के घोर दुःखों को सहन करना पड़ेगा। इसलिए यह तीव्र पापभाव छोड़ना ही योग्य है और हम सभी को प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना चाहिये, जिनेन्द्र भगवान के स्वरूप को समझना चाहिये और उन्होंने किसप्रकार मोक्ष प्राप्त किया – यह भी जानना चाहिये, ताकि हम भी मुक्ति -प्राप्ति का प्रयत्न कर सकें।

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