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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/३३ मनुष्य जन्म की पराधीनता!! देह धारण करने में कितनी पराधीनता है, सीमित क्षेत्र से आगे नहीं जा सकते। जिसप्रकार जेल का कैदी जेल के बाहर नहीं जा सकता, उसीप्रकार भव-भ्रमण की जेल में पड़ा हुआ यह जीव ढ़ाई द्वीप के बाहर नहीं जा सकता। अरे! अब तो शीघ्र ही ऐसी भव-भ्रमण की जेल से छूटने का प्रयत्न करूँगा, जिससे यह देह ही धारण न करना पड़े। .
दीवानजी : महाराज! नंदीश्वर तो नहीं जा सकते। अब अपने नगर की ओर प्रस्थान करें।
राजा श्रीकंठ : नहीं! नहीं!! अब यह पराधीन संसार हमारे स्वप्न में भी नहीं आयेगा। अब चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से भवभ्रमण के कारण को सर्वथा छोड़कर मुक्ति प्राप्त करूँगा अर्थात् इस ढ़ाई द्वीप की जेल से बाहर निकलकर सिद्ध लोक को प्राप्त करूँगा। यह मानुषोत्तर पर्वत मुझे सिद्ध लोक में जाने से नहीं रोक सकेगा।
दीवानजी : तो क्या हमारे साथ नहीं चलेंगे?
राजा श्रीकंठ : नहीं भाई! अब मैं यहीं मुनिदशा अंगीकार करके मोक्ष की साधना करके अपनी आत्मा को, इस भव-भ्रमण से मुक्त करूँगा।
भंडारीजी : अहो! धन्य है आपकी भावना! महाराज आप हमें छोड़कर नहीं जाइयेगा। आप जिस मार्ग पर जा रहे हैं, उसी मार्ग पर हम भी चल कर मोक्ष की साधना करके अपनी आत्मा को इस भवभ्रमण से छुड़ावेंगे।
राजा श्रीकंठ : वाह भाई! तुम्हारी भी उत्तम भावना है। चलो, पास में ही जो मुनिवर विराजमान हैं, उनके पास जाकर मुनिदशा धारण करेंगे। (मुनिराज के पास चले जाते हैं।)
___जो प्राणी को धर्म के मार्ग में लगाता है, वही परममित्र है। दूसरी ओर, जो जीव को भोग-सामग्री में प्रेरित करता है, वही परमशत्रु है, अस्पृश्य है। . . - अध्यात्मयोगी राम, पेज 38.