Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 64
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/६२ पुन: वहाँ से मरकर एकेन्द्रिय आदि में ही गया और संसार ही बढ़ाया। मैं यह नहीं कहता कि दया-दान-पूजादि छोड़कर हिंसादि पापों में प्रवर्तन करो; इससे तो साक्षात् नरक में ही जाना पड़ेगा; अत: जबतक शुद्धोपयोगरूप धर्म प्रगट न हो तबतक शुभभाव करने में कोई हानि नहीं है, परन्तु उसमें धर्म नहीं मानना चाहिये। धर्म मानने पर महा-मिथ्यात्व का दोष आता है। ज्ञानियों को भी यह शुभभाव सहज ही होते हैं, परन्तु वे उन्हें हेय जानते हैं यदि उपादेय जाने तो सम्यक्त्वी न रहें। इसलिए सभी जीव पाप प्रवृत्ति को छोड़कर; दया-दान-पूजा के शुभभावों को हेय जानकर; शुद्धभावरूप धर्म का आस्वादन करके मोक्षसुख की प्राप्ति करें - इसी मंगल भावना के साथ मैं विराम लेता हूँ। (जिनवाणी स्तुति होती है) (प्रवचन के पश्चात् दो मित्र मन्दिर से निकलते हुए कुछ चर्चा कर रहे हैं।) धर्मचन्द - भाई पुण्यप्रकाश ! आज तो पण्डितजी ने आँखें खोल दीं, हमने तो बचपन से ये ही पढ़ा था कि रोज दया-दान-पूजा करेंगे तो बंधन कट जायेंगे; पर ये तो अनन्तबार किया पर धर्म तो हुआ ही नहीं। अरे हम भी तो रोज कर रहे हैं। सुबह उठे, स्नान किया और पूजा-पाठ करने मन्दिरजी चले गये और हो गया धर्म; लेकिन सुख तो मिला ही नहीं। अरे ! मिलता भी कैसे ? सुख तो आत्मानुभवरूप शुद्ध भाव में है। इसकी तरफ ध्यान ही नहीं गया। छहढाला में पण्डितजी ने सही कहा है - जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना। तिन्ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके। इसलिये भाई पुण्यप्रकाश अब तो वीतरागता रूप... पुण्यप्रकाश - (गुस्से में) ठीक है, ठीक है, बहुत हो गया। एक वो पण्डितजी थे; जो घन्टे भर से दया-दान-पूजा को संसार बंधन का कारण कह रहे थे। यदि इनसे कर्म नहीं कटते तो जिनवाणी में इन्हें मोक्ष का कारण क्यों लिखा है ? और एक ये हैं जो इसे हेय और संसार का कारण कहते हैं। खूब मनमानी मचा रखी है; अगर तुम

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