Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ 5 वीतरागाय नमः पुण्यप्रकाश अदालत में (प्रथम दृश्य) (प्रवचन मण्डप में पण्डितजी प्रवचन कर रहे हैं तथा सभी श्रोता शान्ति से सुन रहे हैं।) (मंगलाचरण) मंगलमय मंगलकरण, वीतराग-विज्ञान । नमौं ताहि जातें भये, अरहंतादि महान ॥१॥ करि मंगल करिहौं महा, ग्रंथकरन को काज । जारौं मिलै समाज सब, पावै निजपद राज ॥२॥ यह मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने इसके सातवें अध्याय में अपने मौलिक चिन्तन से जैनाभासी जीवों में पाई जाने वाली सात तत्त्व सम्बन्धी भूलों का वर्णन किया है। यहाँ आस्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल बताते हुए वे शुभभाव में धर्म मानने का निषेध करते हुए कहते हैं कि “जहाँ वीतराग होकर ज्ञातादृष्टारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बन्ध है, सो उपादेय है सो ऐसी दशा न हो तबतक प्रशस्त रागरूप प्रवर्तन करो; परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखो कि यह भी बन्ध का कारण है, हेय है; श्रद्धान में इसे मोक्षमार्ग जान .. मिथ्यादृष्टि ही होता है।" अरे भाई ! दया-दान-पूजा का भाव तो अनन्तबार किया; पर कभी आत्मसन्मुखतारूप शुद्धभाव नहीं किया; जो कि निश्चय से धर्म है। हे भाई ! यह दुर्लभ नरभव पाकर भी आत्मा का रस नहीं चखा, शुभभाव और पुण्यबंध के रस में ही पड़ा रहा, इससे तो संसार ही बढ़ेगा। हाँ, ये बात भी है कि जिनागम में विशुद्धिलब्धिरूप शुभभाव को सम्यक्त्व का कारण कहा है; लेकिन विशुद्धिलब्धिरूप शुभभावं तो अनन्तबार किया, फिर भी सम्यक्त्व प्रकट नहीं हुआ, अपितु मिथ्यात्व अवस्था में देवादि पर्याय धारण करके और

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92