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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/७७ धर्म वकील - अरे वकील साहब ! जरा सुनिये; पूजन स्वाध्याय करने में मन्द
कषाय है तथा व्यापारादि में तीव्र कषाय है; इसलिये शुभअशुभ परिणाम में व्यवहार से भेद है; किन्तु दोनों का लक्ष्य पर की तरफ ही है, अत: बंध का कारण ही है। परमार्थ की अपेक्षा
से दोनों एक ही हैं। पुण्य वकील- (झल्लाकर) मैं नहीं जानता अपेक्षा-वपेक्षा; मैं तो ये जानता
हूँ कि पाप संसार में रुलाने वाला है और पुण्य मुक्तिश्री दिलाने वाला है, इसलिये दोनों अलग-अलग हैं, इसी बात की पुष्टि के लिये मैं प्रतिष्ठित विधानाचार्य सुकृतकुमारजी को अदालत
में बुलाने की इजाजत चाहता हूँ। जज
इजाजत है। बाबू - सुकृतकुमारजी हाजिर हों।
(बाबू शपथ दिलाता है तथा पण्डितजी दोहराते हैं।) पुण्य वकील- सुकृतकुमारजी ! आप अदालत में ये बता दीजिये कि पुण्य-पाप
समान नहीं हैं, बल्कि अलग-अलग हैं और साथ ही पुण्य
मोक्षमार्ग में उपादेय है। सुकृतकुमार - कौन कहता है कि पुण्य मोक्ष का कारण नहीं है और पुण्य -पाप
समान हैं। जज साहब ! पुण्य और पाप कदापि एक नहीं ह। सकते, पुण्य मोक्ष का कारण है और पाप कुगति का कारण है।
पण्डित बनारसीदासजी ने एकदम साफ शब्दों में लिख दिया हैकौऊ शिष्य कहै गुरु पाहीं, पाप-पुन्न दोऊ सम नाहीं।
कारण रस सुभाव फल न्यारे, एक अनिष्ट लगे एक प्यारे॥ अर्थात् पाप का कारण संक्लेशरूप अशुभ भाव है, जबकि पुण्य का कारण भक्ति पूजनादि शुभ भाव है। पाप का उदय होने से जीव को दुःख होता है और पुण्य का उदय होने से जीव सुखी होता है। पाप का स्वभाव संक्लेशमय है, जबकि पुण्य का स्वभाव विशुद्ध भावरूप है। पाप के कारण दुर्गति होती है और पुण्य