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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/८३ काबिल दोस्त ने जितने भी सबूत और गवाह अदालत में पेश किये हैं; उन सबने गृहस्थ पण्डितों के ही प्रमाण पेश किये हैं। मैं चाहता हूँ कि कुछ प्रामाणिक आचार्यों के भी प्रमाण पेश किये जायें।
(सभी लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई) जज
आर्डर ! आर्डर अदालत की गरिमा बनाये रखें। धर्म वकील - आब्जेक्शन मीलॉर्ड ! मेरे काबिल दोस्त सम्माननीय पण्डितों
को अप्रमाणिक कहकर तीर्थंकर और आचार्यों की वाणी को ही अप्रमाणिक कहना चाहते हैं, क्योंकि यह सभी पण्डित
तीर्थंकर और आचार्यों की वाणी का ही प्रतिपादन करते हैं। जज
अदालत में सम्माननीय पण्डितों की गरिमा को ठेस न पहुँचाई
जाये। फिर भी धर्म वकील आचार्यों के प्रमाण भी पेश करें। धर्म वकील - ठीक है जज साहब मैं अदालत में जैनों के सर्वमान्य आचार्य
उमास्वामी के जैन संविधान; अनुच्छेद तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय से यह सूत्र पेश करना चाहूँगा -
कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः।
क्या मेरे काबिल दोस्त इस सूत्र का अर्थ बता सकते हैं ? पुण्य वकील- क्यों नहीं ! इसका अर्थ है सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने पर निराकुल
मोक्ष पर्याय प्रगट होती है। धर्म वकील - और आस्रव अधिकार में आये हुये "शुभः पुण्यास्य अशुभः
पापस्य"; सूत्र का क्या अर्थ है ? पुण्य वकील- शुभ भाव पुण्यास्रव और अशुभ भाव पापास्रव का कारण है। धर्म वकील- प्वाइंट नोट किया जाये जज साहब ! मेरे काबिल दोस्त ने ये खुद
स्वीकार किया है कि सम्पूर्ण कर्मों के नष्ट हो जाने पर मोक्ष होता है और शुभ भाव से पुण्यास्रव होता है और अशुभ भाव से पाप का आस्रव होता है, मतलब साफ है जज साहब ! मोक्ष बंध