Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 78
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/७६ पुण्य वकील- हाँ ! मैं पण्डितजी से पूछना चाहता हूँ कि यदि शुभभाव बंध का कारण है तो सभी पूजनादि क्यों करते हैं और कवि लोग पूजनें क्यों लिखते हैं ? क्या वे हमें संसार में फंसाना चाहते हैं ? पण्डितजी - नहीं वकील साहब ! बात ये नहीं है, कवियों ने तो हमारा उपयोग पाप में न लगे, ज्यादा से ज्यादा तत्त्व समझने में लगे इसलिये पूजने लिखी हैं और इसीलिये हमें पूजनादि करना चाहिये, न कि पूजनादि को सब कुछ मानकर इनमें सन्तुष्ट होना चाहिये। चूंकि पूजनादि शुभ भाव हैं और शुभभाव पुण्यबंधका कारण होता है। बंध तो बंध है चाहे वह पुण्य का हो या पापका। . पुण्य वकील- ठीक है मैं इतना ही पूँछना चाहता था। धर्म वकील - तो पण्डितजी आप पधारें ! जज साहब ! अब ये बात साबित हो चुकी है कि पुण्य का बंध हो चाहे पाप का बंध ! दोनों ही संसार में घुमाने वाले हैं; इसलिये दोनों एक ही हैं। पुण्यप्रकाश - जज साहब ! यह झूठ बोल रहा है अभी तक तो पुण्य को मोक्षमार्ग ही नहीं मान रहा था; अब ऊपर से उसे पाप ही कह रहा है; इसे अदालत से निकाल दीजिये जज साहब! नहीं तो... आप को जो कुछ कहना है कटघरे में आकर कहिये। पुण्यप्रकाश - अरे इनके लिये तो मेरा वकील ही काफी है। जज - तो फिर आप चुप रहिये। धर्म वकील ! आप जो कह रहे थे, कहिये। धर्म वकील - हाँ तो जज साहब ! मैं कह रहा था कि पुण्य और पाप दोनों एक ही हैं और शुद्ध भाव मोक्ष का कारण है; इसलिये अब फैसले में बेवजह देर न की जाये, जज साहब! पुण्य वकील- अरे थोड़ा ठहरिये वकील साहब ! इतनी जल्दी भी क्या है ? आप तो यह कहना चाहते हैं कि मन्दिर में पूजन स्वाध्याय करें या दुकान पर बैठकर धंधा करें दोनों ही समान हैं। जज

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