Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 67
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/६५ आगमन नहीं हुआ था, तब सभी विद्वान और सारी समाज दया-दान-पूजा को ही धर्म मानती थी, मोक्ष का कारण मानती थी। ये हेय हैं, मोक्ष के कारण नहीं हैं, ये तो किसी ने सोचा भी नहीं था। बालक से वृद्ध तक, मूर्ख से पण्डित तक सब दयादान-पूजा के ही गीत गाते थे। लेकिन जब से समाज में कानजीस्वामी नामक व्यक्ति का आगमन हुआ है तब से सारी हवा ही बदल गई है, जो व्यक्ति पहले पूजा-व्रतादिक में ही धर्म मानते थे, अब वे ही लोग उसे हेय कहते हैं और धर्म मानन से इन्कार करते हैं। और तो और जज साहब! इन भावों को बंध का कारण बताकर संसार का ही कारण कहते हैं। यदि यही हाल रहा तो लोगों को दया-दान-पूजादिक से विश्वास ही उठ जायेगा, मन्दिर सूने पड़े रहेंगे और धर्म नष्ट हो जायेगा। यही अभियोग अभियुक्त धर्मचन्द पर लगाये गए हैं। जज धर्मचन्द आपका कोई वकील है क्या ? धर्म वकील - जज साहब ! मैं धर्मचन्द की ओर से इस मुकद्दमे की पैरवी करूँगा। भाई पुण्यप्रकाश के वकील कह रहे थे कि दया-दानपूजादि के भाव मोक्ष का कारण हैं, धर्म हैं, उपादेय हैं; और ये मोक्ष में कारण नहीं हैं, हेय हैं - ऐसा वातावरण कानजीस्वामी के आगमन से हुआ है। यह आरोप सरासर बेबुनियाद और तर्कहीन है तथा लोगों में फैलाया गया झूठ है। कानजीस्वामी ने तो हमें हमारे आचार्यों की ही बातें समझाई हैं; ये बात तो आदिनाथ से लेकर महावीर, तक महावीर से कुन्दकुन्द तक और कुन्दकुन्द से टोडरमलजी तक सभी ने कहीं हैं। कानजीस्वामी ने तो हमें हमारी भाषा में समझाया है कि दयादान-पूजादि का भाव तो भूमिकानुसार आता है, लेकिन उसे उपादेय मानना और मोक्ष का कारण मानना मिथ्यात्व है।

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