Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 72
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/७० ..... सम्यक्त्व क्यों नहीं हुआ ? सिंह की ही पर्याय में क्यों हुआ ? बात साफ है जज साहब ! वहाँ पुण्य होने पर भी आत्मानुभूति नहीं थी और यहाँ आत्मानुभूति थी इसलिये धर्म तो शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप शुद्धभाव से ही प्रगट होता है, पुण्य या शुभ भाव से नहीं। हम भी अनन्तबार समवशरण में गये और इस भव में भी बचपन से रोज मन्दिर जाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, सत् समागम करते हैं; क्या हमारा पुण्य का उदय नहीं है। पुण्य का उदय है जज साहब और शुभभाव भी है, लेकिन आत्मानुभूति नहीं है इसीलिये सम्यक्त्व भी नही है। इस बात का कोई जवाब है वकील साहब ? (पुण्य वकील रूमाल से पसीना पोंछता है और चुप रह जाता है) धर्म वकील - आप देख रहे हैं जज साहब इनकी चुप्पी ही इनकी पराजय का भान करा रही है। पुण्य वकील- (थोड़े आत्मविश्वास के साथ) जज साहब ! लगता है मेरे काबिल दोस्त ने अभी जैन लॉ की पढ़ाई पूरी नहीं की है या फिर अन्तिम पेपर नकल से पास किया है; क्योंकि ये इतना भी नहीं जानते है कि अदातल के अन्तिम निर्णय से पहले फैसला नहीं होता और मैं अभी हारा नहीं हूँ। अभी तो मेरे पास और भी ऐसे पक्के सबूत और गवाह मौजूद हैं; जो यह सिद्ध करके रहेंगे कि पुण्य ही मोक्षमार्ग में उपादेय है उनमें से एक सबूत यह कैसेट है। मैं इसे अदालत में दिखाना चाहता हूँ। जो केस को हाथ में रखे आँवले की तरह साफ कर देगा। जज- इजाजत है। (एक कैसेट में एक व्यक्ति पूजन कर रहा है और उसे देखकर कुछ लोग बातें कर रहे हैं।) चरणदास- देखो भाई ! भगवानदास कितने धर्मात्मा जीव हैं सुबह पाँच बजे

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