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धर्मचन्द -
जैन धर्म की कहानियाँ भाग-१४/६४
ही पड़ेगा। नहीं तो तुम लोग धर्म को भ्रष्ट कर दोगे । इन सब की जड़ तो पण्डितों का मुखिया कानजीस्वामी है, उसी ने यह सारा मायाजाल रचा है; मैं तुम सबको ठीक करके ही दम लूँगा । अरे अदालत में खड़ा कर दूँगा; फिर देखना कौन सच्चा है और कौन झूठा ?
पुण्यप्रकाश ! तुम्हारी इच्छा अदालत में जाने की है तो फैसला वहीं हो जाये। वैसे भी सत्पुरुष कानजीस्वामी ने हमें दिगम्बर आचार्यों के ग्रन्थ खोलकर दिखाये हैं कोई मन की बातें नहीं कहीं ।
पुण्यप्रकाश - अरे घबराता क्यों है, अदालत में तो चल; चल तो सही फैसला वहीं होगा, अब जो भी कहना है अदालत में ही कहना ।
धर्मचन्द - ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा ।
(द्वितीय दृश्य)
(नेपथ्य से - तो आपने देखा कि पुण्यप्रकाश ने अन्त में अदालत में जाने की धमकी दे दी; लगता है कि अब इस बात का निर्णय अदालत ही करेगी कि शुभभाव में धर्म है या शुद्ध भाव में ? तो चलिये; देर किस बात की। ये है स्याद्वाद हाईकोर्ट जहाँ पर पहले भी निमित्त - उपादान जैसे जटिल सिद्धान्त का निष्पक्ष निर्णय हुआ था । अरे यहाँ तो पुण्यप्रकाश पहले से ही अपने वकील के साथ डटे हुए हैं और धर्मचन्दजी भी अपने वकील से सलाह मशविरा कर रहे हैं और लीजिये जज साहब भी आ गये। तो आइये देखते हैं आज की बहस ...)
( अदालत का दृश्य, न्यायाधीश महोदय अदालत में आते हैं और उनके सम्मान में सभी खड़े हो जाते हैं ।)
अदालत की कार्यवाही प्रारम्भ की जाए ।
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जज
पुण्य वकील - सम्माननीय जज साहब ! मैं पुण्यप्रकाश की ओर से आज के मुकद्दमे की पैरवी करूँगा। आज से साठ वर्ष पहले की बात
है । जब दिगम्बर जैन समाज में कानजीस्वामी नामक व्यक्ति का