Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 42
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४० "हे पिताजी ! कुटुंब-परिवार या स्नेहीजन मुझे मात्र भोजनादि साधारण कार्यों में ही साथ दे सकते हैं। मृत्यु के समय तो वे सभी व्यर्थ हैं, धर्मकार्य में भी वे साथ नहीं दे सकते, तब इनसे मेरा क्या भला हो सकता है ? वैसे ही वे जिस समय उनके कर्म अनुसार मृत्यु के मार्ग में जायेंगे, उस समय मैं भी उन्हें संभालने या बचाने में समर्थ नहीं हूँ। जीव का सच्चा साथी तो वही है, जो कि धर्ममार्ग में साथ देता है। जैसे मकान में आग लग जावे, तब समझदार मनुष्य बाहर भागने का प्रयत्न करता है, परन्तु जो उसका शत्रु होता है वह उसे पकड़कर आग में फेंकता है। वैसे ही, मोह की ज्वाला में धधकता यह संसार है। इस संसार दुःख की अग्निज्वाला से मैं बाहर निकलना चाह रहा हूँ, तो हे पिताजी ! किसी शत्रु के समान आप मुझे फिर से उस अग्निज्वाला में मत फैकिये अर्थात् घर में रहने के लिए मत कहिये। इसी प्रकार लहरों से उछलते भीषण समुद्र के बीच अगाध प्रयत्न पूर्वक तैरता-तैरता कोई पुरुष किनारे आवे और कोई शत्रु धक्का देकर उसे पुन: समुद्र में धकेल देवे। वैसे ही हे पिताजी ! दुर्गति के दुखों से भरे हुए इस घोर संसार-समुद्र में मैं अनादि से डूब रहा हूँ, अत: फिर से आप मुझे इस संसार-समुद्र में मत डालिये। जैसे कोई मनुष्य शुद्ध-स्वादिष्ट-स्वच्छ अमृत जैसा मिष्टान्न खाता हो और कोई शत्रु उसमें जहर मिला देवे, वैसे ही मैं भी संसार से विरक्त होकर, अन्तर में धर्मरूपी परम अमृत का भोजन ग्रहण करने के लिए तत्पर . हुआ हूँ, ऐसे समय आप उसमें राजलक्ष्मी के भोग का विष मिलाने का शत्रुकार्य न करें। अरे, मोही जीव संसार के पापकार्यों में ही सहायक होते हैं और पवित्र धर्मकार्यों में विघ्न डालते हैं, उनके समान दूसरा शत्रु कौन हो सकता है ?" वैरागी वरांग अत्यन्त दृढ़तापूर्वक कहते हैं – “मेरे अन्तर में अभी

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