Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 57
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५५ उसकी बहिन ने भी मुनिपने में बहुत कष्ट बताते हुए कहा - “हे बन्धुओ ! वहाँ कोई माता-पिता या परिवार नहीं है, कुटुंब के बिना वन में अकेले किसप्रकार रहोगे?" . तब वैरागी कुमारों ने कहा – “हे माता ! हे बहन ! मुनिदशा में तो महा-आनंद है। वहाँ कोई आत्मा अकेली नहीं है, उनका महान चैतन्य परिवार उनके साथ ही है।" कहा भी है - (शार्दूलविक्रीडित छन्द) धैर्यं यस्य पिता क्षमा च जननि शान्तिश्चिरं गेहिनी, सत्यं सुनुरयं दया च भगिनि भ्राता मनः संयमः। शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं, एते यस्य कुटुंबिनो वद सखे ! कस्मात् भयं योगिनः॥ धैर्य जिसका पिता है, क्षमा जिसकी माता है, अत्यन्त शांति जिसकी गृहिणी है, सत्य जिसका पुत्र है, दया जिसकी बहिन है और संयम जिसका भाई है - ऐसा उत्तम वीतरागी परिवार मुनियों को जंगल में आनंद देता है। फिर पृथ्वी जिसकी शय्या है, आकाश जिसके वस्त्र हैं, ज्ञानामृत जिसका भोजन है - ऐसे योगी को कैसा डर? भय तो इस मोहमयी संसार में है, मोक्ष के साधकों को भय कैसा ?" - ऐसा कहकर देशभूषण-कुलभूषण दोनों कुमार वन में चल गये और दीक्षा लेकर मुनि हो गये। उनकी बहिन आर्यिका हो गयी। दोनों राजकुमार मुनि होकर चैतन्य के अनंत गुण परिवार के साथ अत्यन्त आनंद के साथ क्रीड़ा करने लगे। शुद्धोपयोग के द्वारा निजगुण के स्वपरिवार के साथ भाव-विभोर होते हुए मोक्ष की साधना करने लगे। राम-लक्ष्मण द्वारा मुनिराजों का उपसर्ग-निवारण जिससमय राम-लक्ष्मण और सीता वंशधर पर्वत के पास आये थे, उसी समय देशभूषण-कुलभूषण मुनिवर उस पर्वत के ऊपर ध्यानमग्न

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