Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५८ । समझकर उस पर अतिशय क्रोधित हुए। सीता तो उसका भयंकर रूप देखकर भय से राम से लिपट गयी.... तब राम ने कहा - “हे देवी ! तुम भय मत करो।" इसप्रकार सीता को धीरज बँधाकर दोनों भाइयों ने मुनियों के शरीर से सर्प को दूर किया। बलदेव और वासुदेव के पुण्य के प्रताप से असुरदेवों की विक्रिया का जोर नहीं चला। उसने अपनी विक्रियाजनित माया समेट ली। इसप्रकार उपसर्ग दूर हुआ समझकर राम-लक्ष्मण-सीता आनंद सहित मुनिराजों की स्तुति करने लगे - “हे देव ! आप तो संसार से उदास मोक्ष के साधक हो, आप मंगल हो, आपकी शरण लेकर भव्यजीवों का भवरूपी उपसर्ग दूर हो जाता है और आनंदमय मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। अहो, आप जिनमार्ग के प्रकाशक हो और सम्यक्त्वादि तीन उत्तम रत्नों के द्वारा सुशोभित हो रहे हो, आत्मा की साधना में आप मेरू के समान निश्चल हो। तुच्छ असुरदेव पिछली तीन र तों से घोर उपद्रव करते रहे, फिर भी आप आत्मसाधना से नहीं डिगे, जरा-सा विकल्प भी नहीं किया.। धन्य है आपकी वीतरागता! आपके पास एक नहीं, परन्तु अनेक लब्धियाँ हैं, आप चाहें तो असुरदेव को क्षणमात्र में परास्त कर सकते हो/भगा सकते हो।....परन्तु बहुत उपसर्ग कर्ता के प्रति भी आपको क्रोध नहीं। - ऐसे आप चैतन्य के ध्यान के द्वारा केवलज्ञान साधने में तत्पर हो।" इसप्रकार बहुत स्तुति करते रहे....; लेकिन वहाँ मध्यरात्रि के समय वह दुष्ट देव फिर से आया और मुनियों के ऊपर पुन: उपसर्ग करने लगा। भयानक रूप धारण करके राक्षस और भूतों के समूह नाचने लगे। विचित्र आवाज कर-करके शरीर में से अग्नि की लपटें निकालने लगे....हाथ में तलवार-भाला लेकर कूदने लगे। उनके शोर से पर्वत की शिलाएँ भी काँपने लगीं। मानो कोई भयंकर भूकम्प आया हो। जिस समय बाहर में यह सब कुछ हो रहा था, उसी समय दोनों मुनिवर अंदर शुक्ल-ध्यान में मग्न होकर आत्मा के अपार आनंद का

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92