Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 58
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५६ . विराजमान थे, उस समय उनके पूर्वभव का वैरी दुष्ट अग्निप्रभदेव तीन दिन से उनके ऊपर दैवी मायाजाल के द्वारा घोर उपसर्ग कर रहा था। श्री केवली भगवान की वाणी में ऐसा आया था कि मुनिसुव्रत प्रभु के बाद उनके शासन में देशभूषण-कुलभूषण केवलज्ञानी होंगे – ऐसा सुनकर पूर्व की द्वेषबुद्धि से प्रेरित होकर दुष्ट अग्निप्रभदेव ने विचार किया कि मैं उनके ऊपर उपसर्ग करूँगा, तब केवली भगवान का वचन मिथ्या हो जायेगा। ऐसी मिथ्याबुद्धि के द्वारा वह देशभूषण और कुलभूषण मुनिराजों के ऊपर उपसर्ग करने लगा। विक्रिया के द्वारा सर्प और चींटी बनकर उनके शरीर से लिपट जाता, ऐसी गर्जना करता कि पर्वत कांप उठता.... क्रूर पशुओं का रूप धारण कर मुनियों को खा जाने की चेष्टा करता....रोज रात होने के बाद उन ध्यानस्थ मुनियों के ऊपर उपसर्ग करता। उन उपसर्गों की भयानक आवाज दस-दस गाँव के लोगों तक सुनाई देती थी। वह आवाज सुनकर नगरजन भय से काँप उठते....वहाँ का राजा भी कोई उपाय न कर सका था, इसलिए भय के कारण राजा-प्रजा सभी रात को वह नगरी छोड़कर दूर चले जाते। इसप्रकार अत्यन्त भयभीत नगरजनों को देखकर राम ने उनसे इस भय का कारण पूछा, तब नगरजनों ने कहा “यहाँ रोज रात्रि के समय कोई दुष्ट देव भयंकर उपसर्ग करता है, उसकी अत्यन्त कर्कश आवाज से यहाँ के सभी जन भयभीत हैं। पता ही नहीं चलता कि पर्वत के ऊपर रोज रात्रि को क्या होता है ? तब श्री राम उस पर्वत पर जाने को उद्यत हुए, तब नगरजनों ने कहा - वहाँ बहुत डर है, जिसे तुम बरदाश्त नहीं सकते, इसलिए तुम वहाँ नहीं जाओ, तुम भी हमारे साथ सुरक्षित स्थान में चलो।" ऐसा सुनकर सीता भी भयभीत होकर कहने लगी -

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