Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 40
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/३८ उस कार्य को आत्मा स्वयं ही स्वाधीनपने कर सकता है, कोई दूसरा उसका कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने उत्पादव्यय-ध्रौव्य – ऐसे त्रि-स्वरूप में एकत्वपने रहता है। यदि उत्पाद-व्ययध्रौव्य न हो तो बंध-मोक्ष, सुख-दुःख आदि कुछ नहीं हो सकते। अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का कर्ता जीव स्वयं है, ईश्वर या दूसरा कोई उसका कर्ता नहीं है। सर्वज्ञ भगवान ईश्वर (मुक्तात्मा) तो राग-द्वेष से भिन्न अपने ज्ञानानंद स्वभावरूप में रहनेवाले मुक्त जीव हैं। ऐसे सर्वज्ञ भगवान एक नहीं, अनंत हैं। हम भी रागादि से भिन्न शुद्धभाव प्रगट सर्वज्ञ भगवान करके बन सकते हैं। जीव कषायभावों के द्वारा कर्म से बँधता है और वीतरागभाव के द्वारा बंधन से मुक्त होता है। इसलिए वीतरागता ही मुमुक्षु जीव का कर्तव्य है। वीतरागता का उपदेश देते हुए राजा वरांग आगे कहते हैं - “जिस भूमि में मीठे आम को बो सकते हैं, उसमें मीठे आम के बदले कोई निंबोली का कड़वावृक्ष बोता हो तो उस मूर्ख को क्या कहना? वैसे ही जो जीव इस मनुष्य पर्याय को कषाय के काम में लगावे तो उसकी मूर्खता का क्या कहना ? मुमुक्षु तो धर्म साधना के द्वारा अपने जीवन में मोक्ष का बीज बोता है।" अहो ! वैरागी राजा वरांग राजसभा में इस धर्म चर्चा को सुना रहे हैं - कि जैसे कोई उत्तम पुरुष रत्नद्वीप में जाकर भी वहाँ के रत्नों के बदले रेत लेकर आवे तो वह मूर्ख है, वैसे ही इस उत्तम मनुष्य द्वीप में आकर, सारभूत धर्मरत्न सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ग्रहण करना योग्य है, उसके बदले जो जीव विषयों को ग्रहण करके मनुष्य भव को गँवा देता है, वह मूर्ख है। विषयों में लीन प्राणी क्षण भर में विलय को प्राप्त होते हैं, इसलिए जिनदेव द्वारा कहे हुए सम्यक् रत्नत्रय के मार्ग पर चलना ही सुज्ञपुरुषों का कर्तव्य है।

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