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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४३ श्राविका चतुर्विध संघ की आदरपूर्वक सेवा करना और रत्नत्रय के साधन में सदा तत्पर रहना । महा मूल्यवान जैनधर्म मिला है, इसलिए आत्मसाधना के द्वारा अपना जीवन सुशोभित करना।"
वीर वरांग राजा जिस समय पुत्रों को धर्म की शिक्षा दे रहे थे, उसी समय वैराग्य का अनुपम सुख उनकी मुद्रा को तेजस्वी बना रहा था। तत्पश्चात् बारह वैराग्य भावनाओं का चितवन करते-करते उन्होंने वन की ओर प्रस्थान किया।
__ जिस समय वरांगकुमार वैराग्य से वन की ओर जा रहे थे, उन्हें देखने वाले कितने ही जीवों ने मात्र उनकी प्रशंसा की तथा दूसरे जीव जिनकी आत्मा मरी नहीं थी, जिनका आत्मबल दीन नहीं हुआ था, जो आत्महित में जागृत थे और मोक्ष के लिए उत्सुक थे; वे तो वरांग के साथ ही चल दिये।
"ये युवा राजकुमार आत्महित साधने के लिए वन में जा रहे हैं और हम यहीं हाथ जोड़कर विषय-कषाय में पड़े रहेंगे क्या ? नहीं, यह तो संसार से छूटने का सुनहरा अवसर मिला है।"
___-ऐसा विचार कर उन्होंने भी उनके ही साथ वैराग्य से वन में जाने का निर्णय किया। उनकी रानियों ने भी अपना जीवन धर्मसाधना में लगाया और पति के पीछे-पीछे वे भी आर्यिका दीक्षा लेने के लिए वन की ओर जाने के लिए तैयार हो गईं। वैराग्य का ज्वार परे जोर पर , महाराज धर्मसेन ने पुत्र वरांग को बहुत स्नेहपूर्वक दीक्षा लेने से रोकने का प्रयत्न किया और मुनिदशा में अनेक उपसर्ग-परिषह का वर्णन करके चारित्र-पालन की कठिनता बताई, तब वरांगकुमार ने विनयपूर्वक परन्तु दृढ़ता से कहा - ___“पिताजी ! मुनिपने में जो कठिनता आप बता रहे हैं, वह विषयों के लोलुपी कायरों के लिए कठिन होगी, मोक्षसाधक सिंहवृत्तिवाले जीवों