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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/५१ वरांग मुनिराज देह त्यागकर सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुये । मोक्षपुरी के एकदम पास पहुँच गये। सर्वार्थसिद्धि की आयु पूरी कर अगले भव में वे केवलज्ञान प्रगट करके मोक्षपद को पायेंगे। उन्हें हमारा नमस्कार हो ।
(इसप्रकार श्री जयसिंहनंदी द्वारा रचित वरांगचरित्र में से वैराग्य का दोहन पूरा हुआ, उससे आत्मार्थी जीव वैराग्य भाव उत्पन्न करके आत्महित की प्रेरणा लें - यही इसका उद्देश्य है।)
श्री कुंभकर्णदेवाय नमः श्री कुंभकर्णदेवाय नम: ! क्या ? श्री कुंभकर्णदेवाय नमः
जी हाँ ! हमने कुंभकर्णदेव को नमस्कार किया। क्या तुम्हें आश्चर्य हुआ ? यदि हाँ तो सुनो -
रावण का भाई कुंभकर्ण, यह कोई छह माह तक सोता नहीं रहता था और जब यह सोता था, तब जागने के लिए छाती पर हाथी नहीं चलवाना पड़ता था। जागकर ये कोई भैंसा या भैंसे का बच्चा नहीं खा जाता था ? ____ अरे ! फिर आपने किस कुंभकर्णदेव को नमस्कार किया है, क्या ये कोई भगवान हैं ?
ये कुंभकर्ण तो वीतराग जैनमार्ग के उपासक एक अहिंसक धर्मात्मा थे और उसी भव में मुनि होकर, केवलज्ञान प्राप्त करके, मध्यप्रदेश में बड़वानी चूलगिरी से मोक्ष पधारे हैं। हम इन्हें सिद्ध भगवान समान पूजते हैं। इसलिए लिखा है कि “श्री कुंभकर्णदेवाय नमः" बोलो! कुंभकर्ण भगवान की जय !!