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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/४९
वरांग राजा या वरांगमुनि
सभी को “राजा वरांग” की अपेक्षा नव दीक्षित "वरांग मुनि ” अच्छे लग रहे थे। उनका मुनिरूप देखकर सभी को आश्चर्य हुआ । परम भक्तिपूर्वक मुनिराज की वंदना करके नगरजन उदासचित्त नगर में लौट आये। सभी को राजा वरांग के बिना नगरी सूनी-सूनी लगने लगी। कई दिन तक किसी का चित्त व्यापार धंधे या संसार कार्य में नहीं लगा । चारों ओर वैराग्यपूर्वक धर्मचर्चा ही चलती रही ।
दूसरी ओर वन में मुनि और आर्यिका हुये सभी धर्मात्मा / भव्यात्मा अपनी-अपनी आत्मसाधना में अत्यन्त जागृत होकर शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान में तत्पर हुये । मोक्ष-साधना के लिए उनका साहस कोई साधारण न था ।
'सभी वरांग मुनि आदि नव-दीक्षित होने पर भी मुक्ति के मार्ग से परिचित थे, जिससे मुनि मार्ग का पालन अतिचारादि दोषों से रहित पूर्णतया योग्य कर रहे थे । संसार के किसी भी पदार्थ के प्रति उनका राग नहीं था । ज्ञायकतत्त्व के चिंतन में उन्हें ऐसा आनंद आता था कि अब कोई भी इन्द्रिय-विषय उनके चित्त को आकर्षित नहीं कर सकता था। थोड़े ही समय में उन्होंने पूर्ण ज्ञानाभ्यास प्राप्त कर लिया था । शुद्ध चारित्र पालन के प्रभाव से उन्हें अनेक अचिन्त्य लब्धियाँ तो प्रकट
हो गई थीं.........परन्तु अंतर के
महान आनंद निधान के सामने बाहर की किसी भी लब्धियों की ओर उनका लक्ष्य न था। उनका लक्ष्य तो एकमात्र स्वलक्ष्यरूप चैतन्य में ही केन्द्रित था ।