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। जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/३७ विद्वानों और वैरागी राजा वरांग ने राजसभा में जीवादि तत्त्वों का स्वरूप भी स्पष्ट समझाया -
देह से भिन्न उपयोग स्वरूप जीव है, वह नये-नये रूप में परिणमित होने पर भी जीवत्वरूप में ही नित्य रहने वाला है, उसका कभी नाश नहीं होता।
वह जीव अपने ज्ञानमय भावों का कर्ता-भोक्ता है अथवा रागद्वेष, हर्ष-शोक क्रोधादि भावों को करता है और जिस भाव को करता है, उसके फल को भी वह भोगता है।
जीव यदि ज्ञानमय वीतराग भाव को करे तो उसके फल में मोक्षसुख प्राप्त करता है। शुभ रागादि भाव करे तो उसके फल में स्वर्ग प्राप्त करता है तथा अशुभ पापभावों को करे तो उसके फल में नरकादि गति को प्राप्त करता है। शुभाशुभ भाव से संसार का भ्रमण होता है और उससे रहित शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र के भाव से आत्मा मोक्षसुख को प्राप्त करता है।
उस मोक्ष का उपाय यह है कि अपनी आत्मा को देहादि सब परपदार्थों से भिन्न, शुद्ध चैतन्यस्वरूप जानना एवं अनुभव में लेना।
ऐसा शुद्ध आत्मानुभव, वही 'धर्म' अर्थात् मोक्षमार्ग है।
ऐसे जीवादि तत्त्वों तथा मोक्षमार्ग को बतानेवाले सर्वज्ञ जिनेश्वर, . वह 'देव' हैं।
उस मार्ग पर चलनेवाले सर्वज्ञता के साधक साधु, वही 'गुरु' हैं। - जो जीव जीवत्वरूप आत्मा तथा देव-गुरु-धर्म को समझे, वही जीव सम्यग्दृष्टि है।
जगत में भिन्न-भिन्न अनंत जीव हैं। प्रत्येक जीव की आत्म-शक्ति (आत्मा का वैभव) अपने-अपने में स्वाधीन है। अपने निज वैभव में से परमात्मपना प्रगट करके प्रत्येक आत्मा स्वयं ही परमात्मा बन सकता है।