Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 41
________________ → जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/३९ अरे, यह धनादि जड़ सम्पत्ति जीव को क्या सुख दे सकती है ? पुत्र - परिवार जो स्वयं ही अशरण हैं, वे इस जीव को क्या शरण दे सकते हैं और इस विपुल विशाल राज्य के द्वारा परमार्थ की क्या सिद्धि हो सकती है ? ऐसा संयोग तो क्षणभंगुर और पाप को बढ़ानेवाला है। अब इसका मोह छोड़कर परमार्थ साधना में लगना - यही मेरा निश्चय है । इन्द्रिय-विषयों में कहीं भी सुख तो है नहीं । अरे, इन विषयों के स्वाद के लिए जीव को कितनी आकुलता करनी पड़ती है । ये तृप्ति-दायक नहीं हैं, ये तो दुखदायक ही हैं और इस देह का सौंदर्य ! सनतकुमार चक्रवर्ती का कामदेव के जैसा सुन्दर शरीर ( जिसे देखकर देव भी मुग्ध हो जाते थे) भी क्षणभर में सड़ने लगा - ऐसी सुन्दरता से आत्मा को क्या लाभ है ? और यदि कुरूप होवे तो उससे आत्मा को क्या नुकसान है ? देह से भिन्न चैतन्यतत्त्व अपने एकत्व में ही सुन्दरता से सुशोभित होता है । अरे, इस लोक में कषाय के कोलाहल से अब हमारा मन उदास हो गया है। संसार के संयोग भी जीव के साथ सदा एक समान कहाँ रहते हैं ? ये तो वियोग स्वभाववाले ही हैं। जब कोई भी संयोग ध्रुव (स्थिर) नहीं है, तब फिर वे मुझे शरणरूप कैसे हो सकते हैं ? अरे ! लक्ष्मी - शरीर सुख-दुख अथवा शत्रु-मित्र कोई भी जीव के साथ ध्रुव नहीं हैं, ध्रुव तो एक उपयोग - आत्मक जीव ही है । चाहे जितना धन हो, अथवा बहुत स्नेह रखनेवाले माता-पितापुत्र-परिवारजन हों; परन्तु जिस समय मृत्यु आती है, उस समय क्या मुझे कोई बचा सकता है ? नहीं । मेरा उपयोगस्वरूप आत्मा हमेशा सर्व पर्यायों में उपयोगरूप ध्रुव - निश्चल रहने वाला है, वही मुझे शरणभूत है.... उसकी ही शरण मुझे जन्म-मरण से बचानेवाली है। - दृद-निश्चयी वरांग - जिस समय उनके पालक-पिता सागरदत्त सेठ उन्हें दीक्षा लेने के लिए रोकने का प्रयत्न करते हैं, उस समय वैरागी वरांग युक्तिपूर्वक उनको समझाते हैं:

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