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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/३२ --------- राजा श्रीकंठ : (ऊपर देखकर) अरे! यह तो मेरे बड़े भाई हैं! मेरे बड़े भाई! वाह-वाह!। (थोडी देर के लिए राजा नि:स्तब्ध हो जाते हैं, पश्चात् विचारमग्न हो जाते हैं।)
दीवानजी : क्या हुआ महाराज! कौन हैं? आपके भाई।
राजा श्रीकंठ : देखो भाई! इन देवों के विमानों को देखकर मुझे जातिस्मरण हो गया है। इस विमान में बैठकर जो गये हैं, वे इन्द्र ही मेरे पूर्वभव मे बड़े भाई थे। उनके ही सत्संग से मुझे जैनधर्म प्राप्त हुआ था। उनका हम पर असीम उपकार है। अहो! वे नंदीश्वरद्वीप में प्रभुभक्ति करने जा रहे हैं। चलो! हम भी नंदीश्वरद्वीप में प्रभुभक्ति करेंगे। सेनापति! नंदीश्वरद्वीप जाने के लिए विमान तैयार करो, पूजनसामग्री भी तैयार करके लाओ।
सेनापति : जैसी आज्ञा महाराज! (थोड़ी देर बाद पूजन-सामग्री लेकर आते हैं।)
सेनापति : स्वामी! सब तैयार है। (वाद्ययंत्र बजते हैं। धीरेधीरे गाते-बजाते हुये चलते हैं, २-३ बार गाते-गाते मंच पर आते हैं)) हिलमिल कर सब भक्तो चलो नंदीश्वर जिनधाम में।
(यह गीत पेज नं. ३७ पर पूरा दिया है।)
राजा श्रीकंठ : लवण समुद्र से निकलकर दूसरे धातकीखण्ड द्वीप में आ गये। अब हम जम्बूद्वीप के बाहर आ गये। __ (भजन गाते-गाते फिर अंदर जाते, पुन: बाहर आ जाते।)
राजा श्रीकंठ : अब हम कालोदधि समुद्र से निकलकर तीसरे पुष्करद्वीप में आ गये।
(यहाँ पर्दे पर नंदीश्वर को बहुत दूर ऊँचाई पर दिखाना है, बीच में मानुषोत्तर पर्वत की रचना दिखाना है। संवाद का यह मुख्य और महत्त्वपूर्ण प्रसंग है।)
राजा श्रीकंठ : अरे! मैंने यह बात कई बार सुनी थी, परन्तु भक्ति के वश होकर मैं यह बात भूल ही गया था। अरे! देखो तो