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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/३१ हम जंगल में बहुत दूर-दूर गये, तब वहाँ महान पुण्ययोग से केवली भगवान की गंधकुटी के दर्शन हुये। अपने दोनों राजकुमारों ने वहीं दीक्षा लेकर दिगम्बर मुनिदशा धारण कर ली।
राजा श्रीकंठ : वाह! धन्य है इन बाल कुंवरों को, जिन्होंने इतनी छोटी उम्र में ही राज्य और माता-पिता के मोह को छोड़कर आत्मसाधना में अपना जीवन अर्पित कर दिया, परन्तु वे हमारी मंजूरी लेने घर क्यों नहीं आये?
अंगरक्षक : महाराज! मैंने उन्हें बहुत समझाया, पर वे कहने लगे कि यह समाचार सुनकर पिताजी बहुत प्रसन्न होंगे। ऐसे कार्य में तो पिताजी की मंजूरी जरूर ही मिल जावेगी, क्योंकि पिताजी स्वयं ही ऐसी मुनिदशा की भावना भाते हैं, फिर हमें मुनिदशा लेने में क्यों रोकेंगे? -ऐसा कहकर वे दीक्षित हो गये।
राजा श्रीकंठ : वाह! धन्य है उनके वैराग्य को!! मेरी भी यही भावना है- अपूर्व अवसर ऐसा कब मेरे आयेगा ?
(गीत गाते हैं और अंदर से बाजे बजते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर में आवाज आती है। पहले धीरे से, बाद में जोर से।)
राजा श्रीकंठ : अरे! यह आवाज कहाँ से आ रही है?
विद्याधर : महाराज! आज से अष्टाह्निका पर्व प्रारंभ हो गया है, इसलिए देवों के विमान नंदीश्वर द्वीप में महोत्सव मनाने जा रहे हैं। (वाद्ययंत्र बज रहे हैं। थोड़ी देर में एक विमान ऊपर आकाशमार्ग से निकलता है। श्रीकंठ राजा आकाश की ओर देख रहे हैं।)
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