Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 31
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग १४/२९ विद्याधर : यह सुना कि आत्मा का स्वभाव ज्ञान है। वह ज्ञान व्यवस्थितपने सबको जानने के स्वभाववाला है। ज्ञान में या ज्ञेय में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती। सबकुछ व्यवस्थित है। सेनापति : तो फिर पुरुषार्थ करना चाहिये या नहीं ? विद्याधर : अरे भाई ! ज्ञान और ज्ञेय दोनों के स्वभाव का निर्णय करना ही सम्यग्दर्शन का कारण है। उसमें स्वभाव - सन्मुखता का अपूर्व पुरुषार्थ आ जाता है। अतः भगवान कहते हैं कि हे जीवो! तुम स्वसन्मुख होकर अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय करो। तुम्हारे में सर्वज्ञता प्राप्त करने का सामर्थ्य है, उसे पहिचानो ! राजा श्रीकंठ : वाह ! बहुत ही उत्तम चर्चा है। भाई ! यही जैनशासन का मूल रहस्य है। दीवानजी : आपने और किन-किन तीर्थों की वंदना की ? विद्याधर : मेरु पर्वत के ऊपर शाश्वत जिनमंदिरजी के दर्शन किये। उसके बाद जम्बूद्वीप से बाहर लवणसमुद्र को पार करके मैं धातकीखण्ड द्वीप में गया। भंडारीजी : वहाँ आपने क्या देखा ? विद्याधर : वहाँ अनेक तीर्थंकर भगवान विराजमान हैं। मैंने भक्तिपूर्वक उनके दर्शन किये। फिर कालोदधि समुद्र पार करके मैं पुष्करवर द्वीप में गया। वहाँ अनेक तीर्थंकर भगवान विराजमान थे। उनके भी दर्शन किये। उसके बाद मानुषोत्तर पर्वत पर शाश्वत जिनमंदिरों के भी दर्शन किये। राजा श्रीकंठ : उसके बाद क्या किया ? विद्याधर : इसप्रकार ढ़ाई द्वीप के सभी तीर्थों की वंदना करके मैं यहाँ आया हूँ। दीवानजी : आप और आगे क्यों नहीं गये ? विद्याधर : भाई ! ढ़ाई द्वीप तक ही मनुष्य जा सकते हैं। उसके

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