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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/२०
सिद्धकुमार : आज अपने इन्द्रं महाराज चले गये, तो क्या अब यह इन्द्रासन खाली रहेगा ?.
मुक्तिकुमार : नहीं देवो! यह खाली नहीं रहेगा, तुरंत ही मनुष्य लोक में से कोई आराधक जीव आकर यहाँ इन्द्र के रूप में उत्पन्न होंगे तथा इन्द्रासन पर विराजमान होंगे।
( उत्पाद शैय्या से इन्द्र अचानक उठते हैं। अंदर से बाजों की आवाज होती है।)
दिव्यकुमार : देखो, देखो ! इन्द्र महाराज का जन्म हुआ।
(सब एकसाथ खड़े होकर हाथ जोड़कर कहते हैं। पधारो ! इन्द्र महाराज पधारो ! वे आकर इन्द्रासन पर विचारमग्न होकर बैठते हैं ।) प्रकाशकुमार : क्या आज्ञा है महाराज ?
इन्द्र : अहो, देवो! जैनधर्म के परम प्रताप से मुझे यह विभूति मिली है। चलो, सबसे पहले जिनेन्द्रदेव की पूजा करें।
दिव्यकुमार : यह पूजन की सामग्री लीजिये। (सब हाथ में अर्घ्य लेकर पूजा करते हैं ।)
तेरी भक्ति बसी मनमाहीं, मैं तो पूजूँ पद हरषाई । शाश्वत जिनवर बिम्ब विराजे, मध्यलोक के माहीं । अष्टद्रव्य से जिनवर पूजूँ, पद अनर्घ्य सुख पावँ ।।
इन्द्र : ॐ ह्रीं स्वर्गलोकस्थ विराजमान शाश्वत जिनबिम्बसमूह चरणकमलपूजनार्थे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रकाशकुमार : हे नाथ! इसके पहले भव में आप कहाँ थे?
इन्द्र : देवो! इसके पहिले भव में मैं व्यापारी पुत्र था, वहाँ मुझे मुनिराज के प्रताप से सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ। मुनिदशा अंगीकार करने की मेरी तीव्र भावना थी, परन्तु वह धन्य अवसर प्राप्त होने के पहिले ही आयु पूरी हो गई और यहाँ पर जन्म हुआ ।
सिद्धकुमार : महाराज ! क्या आपने पूर्वभव में धर्म धारण किया, उसके फल में यह इन्द्र पद मिला है।
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