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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/१८ ---- छगनलाल : हाँ भाई चलो!
शांतिलाल सेठ एवं अन्य मिलकर गाते हैं:गा रे भैया......,गा रे भैया......,गा रे भैया......गा। प्रभु गुण गा तू समय न गवाँ... गा रे भैया ।।टेक।। किसको समझे अपना प्यारे, स्वारथ के सब रिश्ते सारे। फिर क्यों प्रीति लगाये..... ओ भैयाजी...! गा रे भैया।।१।। दुनियाँ के सब लोग निराले, बाहर उजले, अन्दर काले। फिर क्यों मोह बढ़ाये.... ओ बाबूजी....! गा रे भैया...॥२॥ मिट्टी की यह नश्वर काया, जिसमें आतमराम समाया। उसका ध्यान लगा ले.... ओ दादाजी ....! गा रे भैया।।३।। स्वारथ की दुनिया को तजकर, निशदिन प्रभु का नाम जपाकर। सम्यक् दर्शन पा ले.... ओ काकाजी...! गा रे भैया...॥४॥ शुद्धातम को लक्ष्य बनाकर, निर्मल भेदज्ञान प्रगटा कर। मुक्ति वधू को पा ले.... ओ लालाजी...! गा रे भैया...॥५॥
अलप भव-थिति जाकी जाके उर अंतर, सुद्रिष्टि की लहर लसी,
विनसी मिथ्यात मोहनिद्रा की ममारखी । सैली जिनशासन की फैली जाकै घट भयौ,
गरब को त्यागी षट-दरब को परखी।। आगम के अच्छर परे हैं जाके श्रवन मैं,
हिरदै-भंडार मैं समानी वानी आरखी। कहत बनारसी अलप भव-थिति जाकी, सोई जिनप्रतिमा प्रवांनै जिन-सारखी।।3।।
- स.ना.गुणस्थान अधिकार 1. मूर्छा/अचेतना। 2. प्रवेश कर गई/समा गई।